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बहिरङ्गकथा
३. आचार्य धर्मानन्द कोशाम्बी कृत विसुद्धिमग्ग- टीका का भी हमने पाद-टिप्पणियों में सहारा लिया है।
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४. डॉ० भिक्षु धर्मरक्षित कृत तथा ज्ञानमण्डल लिमिटेड वाराणसी से प्रकाशित (सन् १९५६ ई०) विसुद्धिमग्ग का हिन्दी भाषान्तर । इस संस्करण ने भी हमको पाद-टिप्पणियों में यत्र-तत्र सहारा दिया है।
५. ग्रन्थ का पैराग्राफिंग तथा उसका क्रमाङ्क हमारा अपना है। कारण यह है कि श्री कोशाम्बीजी के संस्करण में हमें लगा कि उन्होंने क्रमाङ्क के सम्बन्ध में रोमन संस्करण का अन्धानुकरण किया है। जिससे कहीं-कहीं उनके संस्करण में विषय-वस्तु की हास्यास्पद स्थिति बन गयी है। डॉ० रेवतधम्म ने पैराग्राफिंग तथा क्रमाङ्क के सम्बन्ध में अधिक सावधानी रखी है, परन्तु वे भी बर्मी संस्करण का मोह - संवरण नहीं कर सके। अतः हमने दोनों के ही क्रमाङ्कों को न लेकर विषयवस्तु के अनुसार प्रारम्भ में स्वतन्त्र क्रमाङ्क दिये हैं। तथा अवान्तर विषयवस्तु को समझाने के लिये अन्त में अवान्तर क्रमाङ्क भी दिये हैं। उस से भी काम न चला तो कहीं-कहीं (क), (ख) से भी विषय-वस्तु का विभाजन किया है।
६. अनुसन्धाताओं की सुविधा के लिये, ग्रन्थ में आये त्रिपिटक के ग्रन्थों के उद्धरणों के अन्त में कोष्ठक में पृष्ठाङ्कसहित सम्बद्ध ग्रन्थ का नाम दे दिया गया है।
७. पालि के साधारण पाठकों को भी ग्रन्थ सुखेन पठनीय हो सके, अतः हमने अनावश्यक सन्धि वाले पद पृथक् पृथक् लिखे हैं, विशेषतः वग्गन्त (परसवर्ण) की सन्धि वाले पद । इस से ग्रन्थ की परम्परा भी सुरक्षित रहेगी, और साधारण पाठकों के लिये यह ग्रन्थ सुग्राह्य होगा ।
८. विराम आदि चिह्नों के लिये हमने नालन्दा की परम्परा को आदर्श मानकर उसी के अनुसार समग्र चिह्नों का प्रयोग किया है।
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९. इस तरह गुरु कृपा से अत्यधिक परिश्रमपूर्वक इस ग्रन्थ का सम्पादन किया गया है। पूर्ण विश्वास है कि हमारा यह परिश्रम विद्वज्जन तथा छात्रजन- दोनों को ही समान रूप से हितावह तथा सुखावह होगा ।
१०. इस ग्रन्थ के सम्पादन में जिन-जिन महानुभावों की कृतियों का, रचनाओं का ग्रन्थों का हमने सहारा लिया है, उसके लिये हम उन सज्जनों के हृदय से सर्वातिशयतया कृतज्ञ हैं। तथा इसके लिये उनका आभार मानना हमारा प्रथम कर्तव्य है !
अक्षयतृतीया, २०५४ वि०
वाराणसी
विद्वज्जनवशंवद स्वामी द्वारिकादासशास्त्री