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३. कम्मट्ठानग्गहणनिद्देस
दसपलिबोधकथा
११. कथं भावेतब्बति । एत्थ पन यो ताव अयं लोकियलोकुत्तरवसेन दुविधो ति आदीसु अरियमग्गसम्पयुत्तो समाधि वृत्तो, तस्स भावनानयो पञ्ञाभावानानयेनेव सङ्गहितो । पञ्ञाय हि भाविताय सो भावितो होति । तस्मा तं सन्धाय एवं भात्रेतब्बो ति न किञ्चि विसुं वदाम ।
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यो पनायं लोकियो, सो वुत्तनयेन सीलानि विसोधेत्वा सुपरिसुद्धे सीले पतिट्ठितेन य्वास्स दससु पलिबोधेसु पलिबोधो अत्थि, तं उपच्छिन्दित्वा कम्मट्ठानदायकं कल्याणमित्तं उपसङ्कमित्वा अत्तनो चरियानुकूलं चत्तालीसाय कम्मट्ठानेसु अञ्ञतरं कम्मट्ठानं खुद्दकपलिबोधुपच्छेदं गत्वा समाधिभावनाय अननुरूपं विहारं पहाय अनुरूपे विहारे विहरन्तेन कत्वा सब्बं भावनाविधानं अपरिहापेन्तेन परिबोधो भावेतब्वो ति अयमेत्थ सङ्क्षेपो ।
१२. अयं पन वित्थारो। यं ताव वुत्तं – “य्वास्स दससु पलिबोधेसु अत्थि, तं उपच्छिन्दित्वा" ति, एत्थ -
आवासो च कुलं लाभो गणो कम्मं च पञ्चमं । अद्धानं जाति आबाधो गन्थो इद्धी ति ते दसा ति ॥
इमे दस पलिबोधा नाम । तत्थ आवासो येव आवासपलिबोधो । एस नयो कुलादीसु । (= वितर्करहित के साथ) संज्ञा एवं मनस्कार का समुदाचार होता है तब प्रज्ञा विशेषभागिनी होती है” ( अभि० २ - ३९२ ) - इस वचन से विशेषभागीय धर्म जानना चाहिये ।
दस पलिबोध (= परिबोध = समाधि के बाधक)
११. इसके बाद, प्रश्न था - इसकी भावना कैसे करनी चाहिये? अर्थात् इसकी साधना विधि क्या है ? उत्तर है - जो "यह लौकिक एवं लोकोत्तर के अनुसार द्विविध है" आदि (वचनों) में आर्यमार्गसम्प्रयुक्त समाधि कही गयी है, उसकी भावना (साधना) करने की विधि प्रज्ञा की भावना करने की विधि (आगे परिच्छेद २२) में ही संगृहीत है; क्योंकि प्रज्ञा की भावना किये जाने पर वह भी भावित हो जाती है। अतः उसके सन्दर्भ में हम "उसकी इस प्रकार भावना करनी चाहिये " - ऐसा कुछ विशेष पृथक् रूप से नहीं कहना चाहते।
किन्तु लौकिक समाधि की भावना में कही गयी विधि के अनुसार शील का विशोधन कर, सुपरिशुद्ध शील में प्रतिष्ठित हो, दस परिबोधों में से जो उसका परिबोध है उसे नष्ट कर (समाधि के उपयुक्त) कर्मस्थान बतलाने वाले कल्याणमित्र (= साधनामार्ग में सहायक, आचार्य) के पास जाकर चालीस कर्मस्थानों में से अपने अनुरूप कर्मस्थान का ग्रहण कर, समाधि भावना के जो अनुरूप न हो ऐसे विहार को छोड़ अनुरूप विहार में रहते हुए, क्षुद्र (= छोटे-छोटे ) परिबोधों को नाश कर एवं भावना करने के सभी विधानों का पालन करते हुए - ( इस प्रकार) करनी चाहिये- यह संक्षेप में वर्णन
है।
१२. विस्तार से वर्णन इस प्रकार है-जो कहा गया है कि "दस परिबोधों में से जो उसका परिबोध है उसका उपच्छेद कर" उसमें
यहाँ १ . आवास, २ कुल ३ लाभ, ४. गण, ५ कर्म, ६. मार्ग, ७. ज्ञाति (= सम्बन्धीजन), ८. आबाध (= रोग), ९ ग्रन्थ एवं १०. ऋद्धि - ये परिबोध होते हैं।