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विशुद्धिमग्ग
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१३. तत्थ आवासो ति । एको पि ओवरको वुच्चति, एकं पि परिवेणं, सकलो पि सङ्घारामो । स्वायं न सब्बस्सेव पलिबोधो होति । यो पनेत्थ नवकम्मादीसु उस्सुक्कं वा आपज्जति, बहुभण्डसन्निचयो वा होति, येन केनचि वा कारणेन अपेक्खवा पटिबद्धचित्तो, तस्सेव पलिबोधो होति, न इतरस्स ।
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त्रिदं वत्थु - द्वे किर कुलपुत्ता अनुराधपुरा निक्खमित्वा अनुपुब्बेन थूपारामे जिंसु । तेसु एको मातिका पगुणा कत्वा पञ्चवस्सिको हुत्वा पवारेत्वा पाचीनखण्डराजिं नाम गतो । एको तत्थेव वसति । पाचीनखण्डराजिगतो तत्थ चिरं वसित्वा थेरो हुत्वा चिन्तेसि - " पटिसल्लानसारूप्पमिदं ठानं, हन्द नं सहायकस्सापि आरोचेमी" ति । ततो निक्खमित्वा अनुपुब्बेन थूपारामं पाविसि । पविसन्तं येव च नं दिस्वा समानवस्सिक थेरो पच्चुग्गन्त्वा पत्तचीवरं पटिग्गहेत्वा वत्तं अकासि ।
आगन्तुक सेनासनं पविसित्वा चिन्तेसि - " इदानि मे सहायो सप्पिं वा फाणितं वा पानकं वा पेसेस्सति । अयं इमस्सि नगरे चिरनिवासी" ति । सो रत्तिं अलद्धा घातो चिन्तेसि - " इदानि उपट्ठाकेहि गहितं यागुखज्जकं पेसेस्सती" ति । तं पि अदिस्वा "पहिणन्ता नत्थि, पविट्ठस्स मञ्ञे दस्सन्ती" ति पातो व तेन सद्धिं गामं पाविसि । ते द्वे एकं वीथिं चरित्वा उङ्कमत्तं यागुं लभित्वा आसनसालायं निसीदित्वा पिविंसु ।
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ये ही दस परिबोध हैं। इनमें आवास (रहने का स्थान) ही आवासपरिबोध है। कुल आदि में भी इसी विधि से कुलपरिबोध आदि जानने चाहियें ।
१३. इनमें, 'आवास' किसी प्रसङ्ग में एक कमरे को भी, एक परिवेण ( = विहार में भिक्षुवास के लिये बनाया गया या घिरा हुआ स्थान) को भी, कभी कभी पूरे विहार को भी 'आवास' कहा जाता है। यह आवास सभी के लिये पलिबोध नहीं होता। जो निर्माण के नये-नये कर्मों आदि के प्रति उत्सुक होता है, या बहुत से सामानों का संग्रह किये रहता है, या जिस किसी कारण से प्रतिबद्धचित्त (= किसी विशेष लौकिक कार्य के प्रति बँधे हुए मन वाला) होता है, उसी के लिये यह आवास परिबोध होता है, अन्य के लिये नहीं ।
वहाँ (= शास्त्र में) यह कथा (आती) है-दो कुलपुत्र अनुराधपुर से निकल कर एक के बाद एक करके स्तूपाराम (थूपाराम) में प्रव्रजित हुए। उनमें से एक भिक्षु दो मातृकाओं (धर्मविनय या भिक्षु - भिक्षुणी - प्रातिमोक्ष) को सीखकर एवं ( वरिष्ठता के क्रम में) पाँच वर्षों की वरिष्ठता प्राप्त कर प्रवारणा (= वर्षावास के पश्चात् होने वाली भिक्षुओं की सभा) में भाग लेने के पश्चात् खण्डराजि ( अनुराधपुर की पूर्व दिशा में पर्वत-खण्डों के बीच वनों की पंक्ति) में चला गया। दूसरा (भिक्षु) वहीं रह गया। प्राचीन खण्डराजि में गया हुआ (भिक्षु) बहुत समय तक वहीं रहते हुए स्थविर होकर सोचने लगा - "यह स्थान एकान्तवास के योग्य है। अपने साथी को भी बतलाऊँगा।" यो विचार कर, वहाँ सेनिकल, क्रमश: स्तूपाराम पहुँचा। उसे प्रवेश करते हुए देखते ही समान वय के उसके उसी साथी स्थविर ने आगे बढ़कर, उसके हाथ से पात्र और चीवर लेकर आगन्तुक अतिथि क्रे प्रति जो भी करणीय होता है वह किया ।
आगन्तुक ने स्थविर के शयनासन में प्रवेश कर सोचा- " अब मेरा साथी घी, राब या कोई पेय भेजगा; क्योंकि वह इस नगर में बहुत समय से रह रहा है।" उसने रात्रि में (वह सब ) न पाकर, प्रातः सोचा - "इस समय सेवकों के हाथ से यवागू और (कुछ) खाने के लिये भेजेगा "। तब भी उसे (आता) न देखकर उसने - " इस समय लाने वाले (लोग) नहीं हैं, सम्भवत ग्राम में प्रवेश करने पर