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विसुद्धिमग्ग
पञ्चमचतुक्के - कामावचरो समाधि, रूपावचरो समाधि, अरूपावचरो समाधि, अपरियापन्नो समाधी ति एवं चत्तारो समाधी । तत्थ सब्बा पि उपचारेकग्गता कामावचरो समाधि, तथा रूपावचरादिकुसलचित्तेग्गता इतरे तयो ति । एवं कामावचरादिवसेन चतुब्बिधो । छट्ठचतुक्के - "छन्दं चे भिक्खु अधिपतिं करित्वा लभति समाधिं, लभति चित्तस्सेकग्गतं - अयं वुच्चति छन्दसमाधि । विरियं चे भिक्खु ....पे..... चित्तं चे भिक्खु ..पे..... वीमंसं चे भिक्खु, अधिपतिं करित्वा लभति समाधिं, लभति चित्तस्सेकग्गतअयं वुच्चति वीमंसासमाधी" (अभि० २ - २६४ ) ति । एवं अधिपतिवसेन चतुब्बिधो ।
९. पञ्चके - यं चतुक्कभेदे वुत्तं दुतियं झानं तं वितक्कमत्तातिक्कमेन दुतियं, वितक्कविचारातिक्कमेन ततियं ति एवं द्विधा भिन्दित्वा पञ्च झानानि वेदितब्बानि । तेसं अङ्गभूता च पञ्च समाधीति । एवं पञ्चझानङ्गवसेन पञ्चविधता वेदितब्बा ।
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समाधिसङ्किलेसवोदानं
१०. को चस्स सङ्किलेसो ? किं वोदानं ति ? एत्थ पन विस्सज्जनं विभङ्गे वुत्तमेव । वुत्तं हि तत्थ - " -"सङ्किलेसं ति हानभागियो धम्मो । वोदानं ति विसेसभागियो धम्मो " ( अभि० २ - ४०६ ) ति । तत्थ " पठमस्स झानस्स लाभि कामसहगता सञ्ञामसिकारा समुदाचरन्ति हानभागिनी पञ्ञा" (अभि० २-३९२ ) ति इमिना नयेन हानभागियधम्मो वेदितब्बो । " अवितक्कसहगता सञ्ञामनसिकारा समुदाचरन्ति विसेसभागिनी पञ्ञा" ( अभि० २ - ३९२ ) ति इमिना नयेन विसेसभागियधम्मो वेदितब्बो ।
पञ्च चतुष्क में - १. कामावचर समाधि २. रूपावचर समाधि, ३ अरूपावचर समाधि एवं ४. अपर्यापन्न (=असमाविष्ट अर्थात् मार्ग -) समाधि - इस प्रकार चार समाधियाँ हैं। इनमें, सभी प्रकार की उपचार एकाग्रता कामावचरसमाधि है। इसी प्रकार अन्य तीन क्रमशः रूपावचर, अरूपावचर एवं अपर्यापन्न के साथ सम्प्रयुक्त कुशल चित्त की एकाग्रता हैं। इस प्रकार कामावर आदि के अनुसार भी वह चतुर्विध है ।
षष्ठ चतुष्क में - " यदि भिक्षु छन्द (= इच्छा) को प्रमुखता देकर (= अधिपति कर) समाधि अर्थात् चित्त की एकाग्रता का लाभ करता है, तो इसे 'छन्दसमाधि' (छन्द के द्वारा प्राप्त समाधि) कहते हैं। यदि भिक्षु वीर्य को..... वीर्यसमाधि', यदि भिक्षु चित्त को... चित्त समाधि', यदि भिक्षु मीमांसा ( = प्रज्ञा) को प्रमुखता देकर समाधि प्राप्त करता है, चित्त की एकाग्रता का लाभ करता है तो इसे 'मीमांसा - समाधि' कहते हैं।" इस प्रकार अधिपति के अनुसार भी समाधि चतुर्विध है । समाधि का पञ्चक
९. समाधिपञ्चक में- जिसे चतुष्क भेद (= चतुष्क नय) में द्वितीय ध्यान कहा गया है, यहाँ उसे वितर्कमात्र के अतिक्रमण से द्वितीय एवं वितर्क विचार के अतिक्रमण से तृतीय - इस प्रकार दो भेद करके पाँच ध्यान जानना चाहिये। उन्हीं की अङ्गभूत पाँच समाधियाँ हैं। इस प्रकार पाँच ध्यानामों के भेद से समाधि को पञ्चविध जानना चाहिये ।
समाधि का संक्लेश और व्यवदान
१०. इसका संक्लेश (चित्तमल) क्या है? एवं इसका व्यवदान (शुद्धि) क्या है? इसका उत्तर विभङ्ग में दे ही दिया गया है। वहाँ कहा गया है- "संक्लेश हानिभागीय धर्म हैं। व्यवदान विशेषभागीय धर्म है" (अभि० २ - ३९२ ) - इस वचन के सहारे से हानभागीय धर्म जानना चाहिये।" जब अवितर्कसहगत