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________________ ३. कम्मट्ठानग्गहणनिद्देस लक्खणवोमिस्सताय पन वोमिस्सकनयो वेदितब्बो । एवं परित्त-परित्तारम्मणादिवसेन चतुब्बिो | १२३ ततियचतुक्के - विक्खम्भितनीवरणानं वितक्कविचारपीतिसुखसमाधीनं वसेन पञ्चङ्गिकं पठमं ज्ञानं, ततो वूपसन्तवितक्कविचारं तिवङ्गिकं दुतियं, ततो विरत्तपीतिकं दुवङ्गकं ततियं, ततो पहीनसुखं उपेक्खावेदनासहितस्स समाधिनो वसेन दुवङ्गिकं चतुत्थं । इति इमेसं चतुन्नं झानानं अङ्गभूता चत्तारो समाधी होन्ति । एव चतुझानङ्गवसेन चतुब्बिधो । चतुत्थचतुक्क - अत्थि समाधि हानभागियो, अत्थि ठितिभागियो, अत्थि विसेसभागियो, अत्थि निब्बेधभागियो । तत्थ पच्चनीकसमुदाचारवसेन हानभागियता, तदनुधम्मताय सतिया सण्ठानवसेन ठितिभागियता, उपरिविसेसाधिगमवसेन विसेसभागियता, निब्बिदासहगतसञ्ञामनसिकारसमुदाचारवसेन निब्बेधभागियता च वेदितब्बा । यथाह"पठमस्स झानस्स लाभि कामसहगता सञ्ञामनसिकारा समुदाचरन्ति हानभागिनी पञ्ञा । तदनुधम्मता सति सन्तिट्ठति ठितिभागिनी पञ्ञा । अवितक्कसहगता सञ्ञमनसिकारा समुदाचरन्ति विसेसभागिनी पञ्ञा । निब्बिदासहगता सञ्ञामनसिकारा समुदाचरन्ति विरागूपसंहिता, निब्बेधभागिनी पञ्ञा" (अभि० २ - ३९२ ) ति । ताय पन पञ्ञाय सम्पत्ता समाधी पि चत्तारो होन्ती ति । एवं हानभागियादिवसेन चतुब्बिधो । उच्चस्तरीय ध्यान का प्रत्यय हो सकती है, वह अप्रमाण ( = अपरिमित है। जो वर्धित आलम्बन में प्रवृत्त है, वह अप्रमाणालम्बन है। उक्त लक्षणो से मिश्रित समाधि की विधि भी मिश्रित ही जाननी चाहिये। यों यह समाधि परित्त - परित्तालम्बन आदि भेद से चतुर्विध कही गयी है। तृतीय चतुष्क में- नीवरणों का दमन (= विष्कम्भन) कर दिये जाने के पश्चात् प्राप्त होने वाले वितर्क, विचार, प्रीति, सुख एवं एकाग्रता - इन पाँच अङ्गों वाले प्रथम ध्यान की, तत्पश्चात् वितर्कविचार को छोड़कर तीन अङ्गों वाले द्वितीय ध्यान की, प्रीतिरहित दो अङ्गों वाले तृतीय ध्यान की, तदन्तर सुखरहित उपेक्षावेदना एवं एकाग्रता- इन दो अङ्गों वाले चतुर्थ ध्यान की-यों इन चार ध्यानों की अङ्गभूत समाधियाँ भी चार प्रकार की होती हैं। इस प्रकार इन चार ध्यानाङ्गों के अनुसार समाधि भी चतुर्विध है। ; चतुर्थ चतुष्क में - एक हानिभागीय समाधि है, दूसरी स्थितिभागीय, तीसरी विशेषभागीय एवं चौथी निर्वेधभागीय समाधि है। इनमें १ हानभागीय (= प्रत्यनीक समुदाचार) से, २. स्थिति -भागीयता उस समाधि के अनुरूप स्मृति के संस्थान (= ठहराव ) से तथा ३ विशेषभागीयता उच्चतर विशेषता की प्राप्ति एवं ४ निर्वेधभागीयता को निर्वेद के साथ संज्ञा एवं मनस्कार की प्राप्ति की योग्यता के रूप में जानना चाहिये। जैसा कि कहा है- "प्रथम ध्यान का लाभ करने वाले, कामसहगत अर्थात् इन्द्रियसुख की इच्छा से युक्त को जब संज्ञा एवं मनस्कार प्राप्त करने की योग्यता होती है, तब प्रज्ञा हानिभागिनी होती है। जब उसकी समाधि के अनुरूप स्मृति बनी रहती है, तब स्थितिभागिनी प्रज्ञा होती है। जब वितर्क से रहित, संज्ञा एवं मनस्कार को प्राप्त करने की योग्यता होती है तब विशेषभागिनी प्रज्ञा होती है और जब उसकी निर्वेदयुक्त वैराग्यसहगत संज्ञा एवं मनस्कार प्राप्त करने की योग्यता होती है तब निर्वेधभागिनी प्रज्ञा होती है।" उन (चार प्रकार की प्रज्ञाओं) से युक्त समाधियाँ भी चार होती हैं। इस प्रकार हानभागीय आदि भेद से भी समाधि चतुर्विध है।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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