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विसुद्धिमग्ग अपि च तण्हाअविजावसेन समथविपस्सनाधिकारवसेन चापि एतासं पभेदो वेदितब्बो । तण्हाभिभूतस्स हि दुक्खा पटिपदा होति । अनभिभूतस्स सुखा।अविजाभिभूतस्स च दन्धा अभिञा होति । अनभिभूतस्स खिप्पा। यो च समथे अकताधिकारो, तस्स दुक्खा पटिपदा होति। कताधिकारस्स सुखा। यो पन विपस्सनाय अकताधिकारो होति, तस्स दन्धा अभिजा होति । कताधिकारस्स खिप्पा।
किलेसिन्द्रियवसेन चापि एतासं पभेदो वेदितब्बो । तिब्बकिलेसस्स हि मुदिन्द्रियस्स दुक्खा पटिपदा होति दन्धा च अभिजा, तिक्खिन्द्रियस्स पन खिप्पा अभिञा। मन्दकिलेसस्स च मुदिन्द्रियस्स सुखा पटिपदा होति दन्धा च अभिज्ञा, तिक्खिन्द्रियस्स पन खिप्पा अभिञा ति।
इति इमासु पटिपदाअभिज्ञासु यो पुग्गलो दुक्खाय पटिपदाय दन्धाय च अभिज्ञाय समाधिं पापुणाति, तस्स सो समाधि दुक्खापटिपदो दन्धाभिञो ति वुच्चति । एस नयो सेसत्तये पी ति। एवं दुक्खापटिपदा दन्धाभिधादिवसेन चतुब्बिधो।
दुतियचतुक्के अस्थि समाधि परित्तो परित्तारम्मणो, अत्थि परित्तो अप्पमाणारम्मणो, अस्थि अप्पमाणो परित्तारम्मणो, अत्थि अप्पमाणो अप्पमाणारम्मणो ति। तत्थ यो समाधि अप्पगुणो उपरिझानस्स पच्चयो भवितुं न सक्कोति, अयं परित्तो । यो पन अघड्डिते आरम्मणे पवत्तो, अयं परित्तारम्मणो। यो पगुणो सुभावितो, उपरिझानस्स पच्चयो भवितुं सक्कोति, अयं अप्पमाणो। यो च वड्डिते आरम्मणे पवत्तो, अयं अप्पमाणारम्मणो। वुत्तकौशल का सम्पादन न करने वाले की अभिज्ञा ‘मन्द' होती है और सम्पादन करने वाले की 'क्षिप्र'। (१)
इसके अतिरिक्त, तृष्णा-अविद्या के अनुसार एवं शमथ-विपश्यना के अधिकार के अनुसार भी इनका विशेष भेद जानना चाहिये। तृष्णा से अभिभूत की प्रगति दुःखद होती है, अनभिभूत की सुखद । अविद्या से अभिभूत की अभिज्ञा मन्द होती है, अनभिभूत की क्षिप्र । जिसने शमथ में अधिकार (वश) प्राप्त नहीं किया है, उसकी प्रगति दुःखद होती है और जिसने उसमें अधिकार प्राप्त कर लिया है, उसकी सुखद। जिसने विपश्यना में अधिकार प्राप्त नहीं किया है, उसकी अभिज्ञा मन्द होती है और अधिकार प्राप्त की क्षिप्र । (२)
क्लेश एवं इन्द्रियों के भेद से भी इनका प्रभेद जानना चाहिये। तीव्र क्लेश वाले एवं मृदुइन्द्रिय (=मन्दबुद्धि) पुद्गल की प्रगति दुःखद होती है एवं अभिज्ञा मन्द होती है। तीक्ष्णेन्द्रिय की अभिज्ञा क्षिप्र होती है। मन्दक्लेश एवं मृदुइन्द्रिय की प्रगति सुखद एवं अभिज्ञा मन्द होती है, किन्तु तीक्ष्णेन्द्रिय की अभिज्ञा क्षिप्र होती है। (३)
यों, इन प्रगतियों एवं अभिज्ञाओं में जो पुद्गल दुःखद प्रगति एवं मन्द अभिज्ञा के साथ समाधि प्राप्त करता है, उसकी वह समाधि दुःख-प्रतिपद्, दन्ध-अभिज्ञा वाली कही जाती है। यही विधि शेष तीनों में भी है। इस तरह यह दुःख प्रतिपद् दन्ध-अभिज्ञा के भेद से चतुर्विध है। (४)
द्वितीय चतुष्क में- समाधि के चार भेद हैं। १. परित्र परित्रालम्बन, २. परित्र अप्रमाणालम्बन, ३. अप्रमाण परित्रालम्बन एवं ४. अप्रमाण अप्रमाणालम्बन । इनमें, जो समाधि अल्पगुण अर्थात् स्वल्प मात्रा में भावित होने से एवं उच्चस्तरीय ध्यान का कारण बनने में असमर्थ है वह परित्त (=परिमित, सीमित) है। और जो समाधि अवर्धित (=न बढ़ने वाले) आलम्बन में प्रवृत्त होती हो, वह परितालम्बन है। जो प्रगुण अर्थात् अतिमात्रया संवर्धित है एवं जिसकी सम्यक रूप से भावना की गयी है अथवा जो