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________________ ३. कम्मट्ठानग्गहणनिद्देस १२१ दुक्खापटिपदो खिप्पाभिज्ञ, अत्थि सुखापटिपदो दन्धाभिज्ञ, अत्थि सुखापटिपदो खिप्पाभिञति । तत्थ पठमसमन्नाहारतो पट्ठाय याव तस्स तस्स झानस्स उपचारं उप्पज्जति, ताव पवत्ता समाधिभावना पटिपदा ति वुच्चति । उपचारतो पन पट्ठाय याव अप्पना, ताव पवत्ता पञ्ञ अभिञ्ञति वुच्चति । सा पनेसा पटिपदा एकच्चस्स दुक्खा होति, नीवरणादिपच्चनीकधम्मसमुदाचारगहणताय किच्छा असुखासेवना ति अत्थो। एकच्चस्स तदभावेन सुखा । अभिज्ञापि एकच्चस्स दन्धा होति मन्दा असीघप्पवत्ति । एकच्चस्स खिप्पा अमन्दा सीघप्पवत्ति । तत्थ यानि परतो सप्पायासप्पायानि च, पलिबोधुपच्छेदादीनि पुब्बकिच्चानि च, अप्पनाकोसल्लानि च वण्णयिस्साम, तेसु यो असप्पायसेवी होति, तस्स दुक्खा पटिपदा दन्धा च अभिज्ञा होति । सप्पायसेविनो सुखा पटिपदा खिप्पा च अभिज्ञा । यो पन पुब्बभागे असप्पायं सेवित्वा अपरभागे सप्पायसेवी होति, पुब्बभागे वा सप्पायं सेवित्वा अपरभागे असप्पायसेवी, तस्स वोमिस्सकता वेदितब्बा । तथा पलिबोधुपच्छेदादिकं पुब्बकिच्चं असम्पादेत्वा भावनमनुयुत्तस्स दुक्खा पटिपदा होति विपरियायेन सुखा । अप्पनाकोसल्लानि पन असम्पादेन्तस्स दन्धा अभिज्ञा होति । सम्पादेन्तस्स खिप्पा | समाधि-चतुष्क ८. चतुष्कों में प्रथम चतुष्क में - (१) दुःखप्रतिपद्, दन्ध - अभिज्ञा (मन्द ज्ञान) समाधि है, (२) दुःखप्रतिपद्, क्षिप्र - अभिज्ञा (= शीघ्रता से प्रवर्तित होने वाला अपरोक्ष ज्ञान) समाधि है, ( : ) सुखप्रतिपद्, दन्ध- अभिज्ञा समाधि है, (४) सुखप्रतिपद्, क्षिप्र-अभिज्ञा समाधि है -यों इस समाधि के चार भेद गिनाये गये हैं । इनमें प्रथम सचेतन प्रतिक्रिया से लेकर किसी ध्यान का उपचार ( स्थैर्य) उत्पन्न होने तक जो समाधि की भावना है, उसे 'प्रतिपद्' (या प्रतिपदा) कहते हैं। एवं उपचार से लेकर अर्पणा तक प्रवृत्त जो प्रज्ञा होती है वह 'अभिज्ञा' कही जाती है। नीवरण (= कामच्छन्द, व्यापाद, स्त्यानमृद्ध. औद्धत्य-कौ कृत्य एवं विचिकित्सा) आदि विपरीत धर्मों के समुदाचार (= उत्पन्न होने) से एवं उनके द्वारा चित्त का ग्रहण कर लिये जाने से वह प्रतिपद् किसी-किसी के लिये दुःखद होती है, अर्थात् सुख के साथ सेवनीय (भावनीय) नहीं होती। किसी को उन नीवरण आदि के अभाव से वही सुखद होती है। अभिज्ञा (= अपरोक्ष ज्ञान) भी किसी-किसी को धुंधली या मन्द एवं शीघ्र प्रवृत्त न होने वाली होती है और किसी को क्षिप्र, (त्वरित) अमन्द व शीघ्र प्रवृत्त होने वाली होती है । आगे हम जो अनुकूल (सप्पाय) अननुकूल (असप्पाय) का परिबोध (= पलिबोध - विघ्नबाधा) के उपच्छेदक प्रारम्भिक कृत्यों का एवं अर्पणा - कौशल का वर्णन करेंगे, उनमें जो अननुकूल का सेवन करने वाला होता है, उसे प्रगति (= प्रतिपद्) में दुःख का अनुभव होता है एवं उसका अपरोक्ष ज्ञान धुँधला (मन्द) होता है, अनुकूलसेवी को प्रगति करने में सुख का अनुभव होता है एवं उसका अपरोक्ष ज्ञान क्षिप्र (झटिति) होता है। किन्तु जो पहले अननुकूल का सेवन कर बाद में अनुकूल का सेवन करने वाला होता है अथवा पहले अनुकूल का सेवन कर बाद में अननुकूल का सेवन करने वाला होता है, उसकी प्रतिपद् एवं अभिज्ञा को मिश्रित प्रकार का जानना चाहिये। तथा परिबोध (= ज्ञान के बाधक धर्म) के उपच्छेद आदि पूर्व में ही करणीय कृत्यों का सम्पादन किये विना ही जो भावना में लगा हुआ है, उसकी प्रगति 'दुखद' होती है तथा इसके विपरीत की 'सुखद' । अर्पणा --
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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