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________________ १२० विसुद्धिमग्ग समाधितिकानि ७. तिकेसु - पठमत्तिके पटिलद्धमत्तो हीनो, नातिसुभावितो मज्झिमो, सुभावितो सिप्पतो पण तो ति एवं हीन - मज्झिम- पणीतवसेन तिविधो । दुतियत्तिके - पठमज्झानसमाधि सद्धिं उपचारसमाधिना सवितक्कसविचारो । पञ्चकनये दुतियज्झानसमाधि अवितक्कविचारमत्तो । यो हि वितक्कमत्ते येव आदीनवं दिस्वा विचारे अदिस्वा केवलं वितक्कप्पहानमत्तं आकङ्क्षमानो पठमज्झानं अतिक्कमति, सो अवितक्कविचारमत्तं समाधिं पटिलभति । तं सन्धायेतं वृत्तं । चतुक्कनये पन दुतियादीसु, पञ्चकनये ततियादीसु तीसु झानेसु एकग्गता अवितक्काविचारो समाधी ति एवं सवितक्कसविचारादिवसेन तिविधो । / ततियत्तिके - चतुक्कनये आदितो द्वीसु, पञ्चकनये च तीसु झानेसु एकग्गता पीतिसहगतो समाधि । तेस्वेव ततिये च चतुत्थे च झाने एकग्गता सुखसहगतो समाधि । अवसाने उपेक्खासहगतो । उपचारसमाधि पन पीतिसुखसहगतो वा होति उपेक्खासहतो वाति एवं पीतिसहगतादिवसेन तित्रिधो । चतुत्थत्तिके - उपचारभूमियं एकग्गता परित्तो समाधि । रूपावचरारूपावचरकुसले एकग्गता महग्गतो समाधि । अरियमग्गसम्पयुत्ता एकग्गता अप्पमाणो समाधी ति एवं परित्त - महग्गतप्पमाणवसेन तिविधो । समाधिचक्कानि ८. चतुक्केसु पठमचतुक्के - अत्थि समाधि दुक्खापटिपदो दन्धाभिञ्ञो, अतिथ समाधि के त्रिक ७. त्रिकों में - प्रथम त्रिक में जो समाधि प्रतिलब्धमात्र है, परन्तु अभ्यस्त नहीं है, वह हीन है, जिसका अधिक अभ्यास नहीं किया गया है वह मध्यम है और जो पूर्ण अभ्यस्त कर ली गयी है, जिसे वश (स्वायत्तता) में कर लिया गया हो, वह प्रणीत (उत्तम) है। इस प्रकार हीन, मध्यम एवं उत्तम भेद से त्रिविध है । द्वितीय त्रिक में- उपचार समाधि के साथ प्रथम ध्यान की समाधि 'सवितर्क-सविचार' है। पञ्चक नय में, द्वितीय ध्यान की समाधि 'अवितर्क-विचारमात्र' है। जो वितर्क मात्र में ही दोष देखकर एवं विचार में दोष न देखकर वितर्क के प्रहाण मात्र की इच्छा करते हुए प्रथम ध्यान का अतिक्रमण करता आगे बढ़ता है, वह 'अवितर्कविचारमात्र समाधि' का लाभ करता है। उसी के सन्दर्भ में यह कहा गया है। चतुष्क नय में प्रथम दो ध्यानों एवं पञ्चक नय में प्रथम तीन ध्यानों में प्राप्त एकाग्रता 'अवितर्क - अविचार समाधि' है। इस तरह सवितर्क-सविचार आदि भेद से समाधि त्रिविध है । तृतीय त्रिक में - चतुष्क नय में प्रथम दो एवं पञ्चक नय में प्रथम तीन ध्यानों में जो एकाग्रता होती है वह 'प्रीतिसहगत समाधि' है। उन्हीं तृतीय एवं चतुर्थ ध्यानों में एकाग्रता को 'सुखसहगत समाधि' कहते हैं। शेष 'उपेक्षासहगत' है । उपचारसमाधि 'प्रीतिसुखसहगत' या 'उपेक्षासहगत' होती है । इस प्रकार, प्रीतिसहगत आदि के भेद से यह त्रिविध है । चतुर्थ त्रिक में- उपचारभूमि में एकाग्रता 'परित्त (= कुशल चित्त के कामावचर भाव के कारण परिमित) समाधि' है। रूपावचर, अरूपावचर के कुशल चित्त की एकाग्रता 'महद्गत (महान्) समाधि' है । आर्यमार्गसम्प्रयुक्त एकाग्रता 'अप्रमाण (= अपरिमित) समाधि' है। इस प्रकार, परित्त, महद्गत, अप्रमाण के भेद से भी यह समाधि त्रिविध है।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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