SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३. कम्मट्ठानग्गहणनिद्देस ११९ पञ्चविधो पञ्चकनये पञ्चझानङ्गवसेना ति। समाधिएककदुकानि ६. तत्थ एकविधकोट्टासो उत्तानत्थो येव। दुविधकोट्ठासे-छन्नं अनुस्सतिट्ठानानं, मरणस्सतिया, उपसमानुस्सतिया, आहार पटिकूलसजाय, चतुधातुववत्थानस्सा ति इमेसं वसेन लद्धचित्तेकग्गता, या च अप्पनासमाधीनं पुब्बभागे एकग्गता, अयं उपचारसमाधि। "पठमस्स झानस्स परिकम्म पठमस्स झानस्स अनन्तरपच्चयेन पच्चयो" (अभि०७ : २-३४१) ति आदि वचनतो पन या परिकम्मानन्तरा एकग्गता, अयं अप्पनासमाधी ति एवं उपचारप्पनावसेन दुविधो। दुतियदुके-तीसु भूमिसुकुसलचित्तेकग्गता लोकियो समाधि।अरियमग्गसम्पयुत्ता एकग्गता लोकुत्तरो समाधी ति एवं लोकिय-लोकुत्तरवसेन दुविधो। ततियदुके-चतुक्कनये द्वीसु, पञ्चकनये तीसुझानेसु एकग्गता सप्पीतिको समाधि। अवससेसु द्वीसुझानेसु एकग्गता निप्पीतिको समाधि। उपचारसमाधि पन सिया सप्पीतिकिो, सिया निप्पीतिको ति एवं सप्पीतिक-निप्पीतिकवसेन दुविधो। __ चतुत्थदुके-चतुकनये तीसु, पञ्चकनये चतूसु झानेसु एकग्गता सुखसहगतो समाधि। अवसेसस्मि उपेक्खासहगतो समाधि। उपचारसमाधि पन सिया सुखसहगतो, सिया उपेक्खासहगतो ति एवं सुखसहगत-उपेक्खासहगतवसेन दुविधो।। तथा परित्र, परित्रालम्बन आदि के अनुसार, चार ध्यान एवं हानभागीय आदि के अनुसार भी, कामावचरादि भेद से भी, तथा अधिपति भेद से भी चतुर्विध है। पञ्चक नय (=पाँच ध्यानो को मानने वाली विधि) में पञ्च ध्यानाङ्गों के अनुसार पञ्चविध है। समाधि के एकक एवं द्विक विभाग ६. उनमें, 'एकविध' समाधिबोधक वर्ग का अर्थ स्पष्ट ही है। द्विविध (समाधि) वर्ग में- छ. अनुस्मृति-स्थान, मरण-स्मृति, उपशमानुस्मृति, आहार में प्रतिकूलसंज्ञा, चतुर्धातुव्यवस्थापन-इनके द्वारा प्राप्त चित्त की एकाग्रता एवं अर्पणा समाधि के पूर्व की एकाग्रता उपचार समाधि है।"प्रथम ध्यान का परिकर्म (=प्रारम्भिक कृत्य) प्रथम ध्यान का अनन्तरप्रत्यय (आसन्न कारण) होने से प्रत्यय है"-आदि वचनों के अनुसार जो परिकर्म के अनन्तर आने वाली एकाग्रता है, वह अर्पणा समाधि है। इस प्रकार उपचार एवं अर्पणा के भेद से (समाधि) द्विविध है। द्वितीय द्विक में--कामावचर, रूपावचर एवं अरूपावचर-इन तीनों भूमियों में कुशल चित्त की एकाग्रता लौकिक समाधि है। आर्यमार्गसम्प्रयुक्त एकाग्रता लोकोत्तर समाधि है। इस प्रकार लौकिक एवं लोकोत्तर भेद से भी यह द्विविध है। तृतीय द्विक में- =चार ध्यान मानने वाली विधि चतुष्क नय में दो ध्यानों में एवं पाँच ध्यान मानने वाली विधि पञ्चक नय में तीन में जो एकाग्रता होती है वह प्रीतिसहित समाधि है। अवशिष्ट दो ध्यानों में प्राप्त एकाग्रता प्रीतिरहित समाधि है। उपचारसमाधि प्रीतिसहित भी हो सकती है, प्रीतिरहित भी। इस प्रकार प्रीतिसहित एवं प्रीतिरहित भेद से वह द्विविध है। चतुर्थ द्विक में- चतुष्क नय में तीन ध्यानों में, एवं पञ्चक नय में चार ध्यानों में जो एकाग्रता होती है वह सुखसहगत समाधि है। अवशिष्ट ध्यानों में जो एकाग्रता होती है वह उपेक्षासहगत समाधि है। उपचार-समाधि सुखसहगत भी हो सकती है, उपेक्षासहगत भी। यों, समाधि सुखसहगत एवं उपेक्षासहगत भेद से भी द्विविध है।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy