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________________ विसुद्धिमग केनटेन समाधि? ३. केनटेन समाधी ति? समाधानतुन समाधि। किमिदं समाधानं नाम? एकारम्मणे चित्तचेतसिकानं समं सम्मा च आधानं, ठपनं ति वुत्तं हति । तस्मा यस्स धम्मस्सानुभावेन एकारम्मणे चित्तचेतसिका समं सम्मा च अविक्खिपमाना अविप्पकिण्णा च हुत्वा तिट्ठन्ति, इदं 'समाधानं' ति वेदितब्बं । समाधिस्स लक्खणादीनि ४. कानस्स लक्खणरसपच्चुपट्ठानपदवानानी ति? एत्थ पन अविक्खेपलक्खणो समाधि, विक्खेपविद्धंसनरसो, अविकम्पनपच्चुपट्ठानो। “सुखिनो चित्तं समाधियती" (दी० नि० १-६५) ति वचनतो पन सुखमस्स पदट्ठानं । समाधिभेदा ५. कतिविधो समाधी ति? अविक्खेपलक्खणेन ताव एकविधो।। उपचार-अप्पनावसेन दुविधो, तथा लोकिय-लोकुत्तरवसेन सप्पीतिकनिप्पीतिकवसेन सुखसहगत-उपेक्खासहगतवसेन च। तिविधो हीनमज्झिमपणीतवसेन, तथा सवितक्कसविचारादिवसेन, पीतिसहगतादिवसेन, परित्तमहग्गतप्पमाणवसेन च। चतुब्बिधो दुक्खापटिपदादन्धभिज्ञादिवसेन, तथा परित्तपरित्तारम्मणादिवसेन, चतुझानङ्गवसेन, हानभागियादिवसेन, कामावचरादिवसेन, अधिपतिवसेन च। (२) किस अर्थ में समाधि शब्द का प्रयोग है? ३. किस अर्थ में समाधि है? अर्थात् समाधि का अर्थ क्या है? समाधान के अर्थ में 'समाधि' शब्द का प्रयोग है। यह समाधान क्या है? एक आलम्बन में चित्त-चैतसिकों का एक समान एवं सम्यक् रूप से आधान (=टिकाना) करना ही समाधान कहा गया है। इसलिये जिस धर्म के कारण (=आनुभाव से बल से, कारण से) एक आलम्बन में चित्त-चैतसिक एक समान एवं सम्यक् रूप से विक्षेपरहित एवं अविप्रकीर्ण (=एकजुट) होकर रहते हैं, उसे 'समाधान' समझना चाहिये। (३) समाधि के लक्षण आदि ४ इसके लक्षण, रस, प्रत्युपस्थान, पदस्थान क्या है? समाधि का लक्षण है अविक्षेप (=चित्त का ध्येय विषय से न हटना)। इसका रस (=कार्य) है विक्षेप का विध्वस (=विनाश) करना। और कम्पन रहित होना प्रत्युपस्थान है। (ध्येय विषय के प्रति चित्त-चैतसिको के, निर्वातस्थित दीपशिखावत्, कम्पनरहित वर्तन के रूप में समाधि को समझना चाहिये।) "सुखी का चित्त समाधिस्थ होता है"-इस भगवद्ववचन के अनुसार सुख इसका पदस्थान (=आसन्न कारण) है। (४) समाधि के भेद ५ समाधि के कितने भेद हैं?- समाधि उक्त अविक्षेप लक्षण के अनुसार एकविध है। तथा उपचार-अर्पणा के अनुसार द्विविध है। एवं लौकिक लोकोत्तर, प्रीतिसहित प्रीतिरहित, सुखसहगत उपेक्षासहगत-इन भेदो से भी द्विविध है। हीन, मध्यम, प्रणीत के अनुसार त्रिविध है। तथा सवितर्क सविचार आदि या प्रीतिसहगत आदि एव परित्र, महद्गत, अप्रमाण आदि के अनुसार भी त्रिविध है। दुखप्रतिपद्, दन्ध अभिज्ञा ( धुंधला या मन्द अपरोक्ष ज्ञान) आदि के अनुसार चतुर्विध है।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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