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विशुद्धिमग्ग
ति आदिवचनतो अकुसलं पि धुतङ्गं ति ? सो वत्तब्बो - न मयं 'अकुसलचित्तेन अरजे न वसती' ति वदाम । यस्स हि अरञ्ञे निवासो, सो आरञ्ञिको । सो च पापिच्छो वा भवेय्य, अप्पिच्छो वा । इमानि पन तेन तेन समादानेन धुतकिलेसत्ता धुतस्स भिक्खुनो अङ्गानि, किलेसधुननतो वा धुतं ति लद्धवोहारं जाणं अङ्गमेतेसं ति धुतङ्गानि । अथ वाधुतानि च तानि परिपक्खनिननतो अङ्गानि च पटिपत्तिया ति पि धुतङ्गानी ति वुत्तं । न च अकुसलेन कोचि धुतो नाम होति, यस्सेतानि अङ्गानि भवेय्युं; न च अकुसलं किञ्चि धुनाति, तं तित्वा तङ्गानी ति वुच्चेय्यं । नापि अकुसलं चीवरलोलुप्पादीनि चेव निद्धुनाति, पटिपत्तिया च अङ्गं होति, तस्मा सुवुत्तमिदं - "नत्थि अकुसलं धुतङ्गं" ति ॥
ये पि कुसलत्तिकविनिमुत्तं धुत, तेसं अत्थतो धुतङ्गमेव नत्थि । असन्तं कस्स धुननतो धुतङ्गं नाम भविस्सति ! " धुतगुणे समादाय वत्तती" ति वचनविरोधो पि च नेसं आपज्जति, तस्मा तं न गहेतब्बं " ति ।
अयं ताव कुसलत्तिकतो वण्णना ।
७३. धुतादीनं विभागतो ति । धुतो वेदितब्बो, धुतवादो वेदितब्बो, धुतधम्मा वेदितब्बा, धुतङ्गानि वेदितब्बानि, कस्स धुतङ्गसेवना सप्पाया ? - ति वेदितब्बं । ७४. तत्थ धुतोति । धुतकिलेसो वा पुग्गलो, किलेसधुननो वा धम्मो ।
आदि वचनों के अनुसार धुताङ्ग भी अकुशल होता है? तो उससे कहना चाहिये- हम नहीं कहते है कि अकुशल चित्त से कोई अरण्य में नहीं रह सकता। जो कोई भी अरण्य में निवास करता है, वह आरण्यक है, चाहे वह पापमय इच्छा वाला या अल्पेच्छ हो । किन्तु, जैसा कि पहले कहा जा चुका है, ये उस भिक्षु के अङ्ग (अभ्यास, नियम) हैं जो धुत है, जिसने इनमें से किसी एक को धारण करने से क्लेशों को धुत (=विचलित) कर दिया है, अथवा क्लेशों को धुन डालने के कारण धुत कहा जा वाला ज्ञान इनका अङ्ग है, इसलिये ये धुताङ्ग हैं। अथवा, प्रतिपक्ष (विरोधी दुर्गणों) का धुनन करने के कारण धुत हैं एवं प्रतिपत्ति (मार्ग) होने के कारण अङ्ग हैं- ऐसा भी कहा जाता है। अकुशल के द्वारा तो कोई भी धुत (=परिशुद्ध) नहीं होता, जिसके कि ये अङ्ग हो। और न ही अकुशल किसी को धुनता है, जिसका अङ्ग मानकर उन्हें धुताङ्ग कहा जाय। अकुशल न तो चीवर के प्रति लोलुपता आदि को धुनता है और न प्रतिपत्ति का अङ्ग ही होता है। इसलिये यह ठीक ही कहा गया है कि "अकुशल धुताङ्ग नहीं होता" ।
जिनका (अनुराधपुर के अभयगिरिविहार के निवासी स्थविरों का जिनके अनुसार धुताङ्ग प्रज्ञप्तिमात्र=नाम या संज्ञा मात्र हैं -) यह भी कहना है कि "धुताङ्ग कुशल - त्रिक शैक्ष्य पृथग्जन क्षीणास्त्र आदि से बाहर हैं, उनके लिये वस्तुतः धुताङ्ग हैं ही नहीं"। जब वे हैं ही नहीं, तो किसके धुनने से धुताङ्ग नाम होगा! " धुतगुणों का ग्रहण करने के लिये प्रवृत्त होता है - इस वचन से भी उन स्थविरों का विरोध होता है, अतः उनके मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता ।।
यह कुशल-त्रिक के अनुसार धुताङ्गों का वर्णन है ।।
७३. धुत आदि के विभाग से - धुत को जानना चाहिये, धुतवादी को जानना चाहिये, धुतधमा को जानना चाहिये, धुताङ्गों को जानना चाहिये ( एवं ) धुताङ्ग किसके लिये उपयुक्त है? – इसे जानना चाहिये ।
७४. धुत - यहाँ 'धुत से ऐसे पुद्गल का तात्पर्य है जिसके क्लेश धुन दिये अर्थात् विचलित