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________________ ११० विसुद्धिमग्ग सब्रह्मचारिनवके हितेन अनुकम्पति॥ तस्मा अरियसताचिण्णं मुनिपुङ्गववण्णितं। अनुयुञ्जेथ मेधावी यथासन्थतरामतं ॥ ति॥ अयं यथासन्थतिकङ्गे समादानविधानप्पभेदभेदानिसंसवण्णना॥ १३. नेसज्जिकङकथा । ६७. नेसजिकङ्गं पि "सेय्यं पटिक्खिपामि", "नेसज्जिकङ्गं समादियामी" ति इमेसं अञ्जतरवचनेन समादिन्नं होति। ६८. तेन पन नेसज्जिकेन रत्तिया तीसु यामेसु एकं यामं उट्ठाय चङ्कमितब्बं । इरियापथेसु हि निपज्जितुमेव न वट्टति। इदमस्स विधानं। ६९. पभेदतो पन अयं पि तिविधो होति; तत्थ-१. उक्टुस्स नेव अपस्सेनं, न दुस्सपल्लत्थिका, न आयोगपट्टो वट्टति। २. मज्झिमस्स इमेसु तीसु यं किञ्चि वट्टति। ३. मुदुकस्स अपस्सेनं पि दुस्सपल्लत्थिका पि आयोगपट्टो पि बिब्बोहनं पि पञ्चङ्गो पि सत्तङ्गो पि वट्टति। पञ्चङ्गो पन पिट्ठिअपस्सयेन सद्धिं कतो। सत्तङ्गो नाम पिट्ठिअपस्सयेन च उभतोपस्सेसु अपस्सयेहि च सद्धिं कतो। तं किर पीठाभयत्थेरस्स अकंसु। थेरो अनागामी हुत्वा परिनिब्बायि। ७०. इमेसं पन तिण्णं पि सेय्यं कप्पितमत्ते धुतङ्गं भिज्जति । अयमेत्थ भेदो। वह श्रेष्ठ के प्रति राग नहीं करता और हीन को पाकर क्रोध नहीं करता। नवीन सब्रह्मचारियों के हित के लिये अनुकम्पा करता है। इसलिये मेधावी भिक्षु को आर्यजनों से सेवित, मुनिपुङ्गव (=भगवान् बुद्ध) द्वारा प्रशंसित यथासंस्तृतिक-विहार (साधना) में निरन्तर संलग्न रहना चाहिये ।। यह यथासंस्तुतिकाल के विषय में समादान, विधान, प्रभेद, भेद एवं माहात्म्य का वर्णन समाप्त हुआ ।। १३. नैषधिकाङ्ग ६७. तेरहवाँ नैषधिका भी १. "शय्या का परित्याग करता हूँ", या २ नैषधिकाङ्ग का ग्रहण करता हूँ"-इनमें से किसी एक देशनावचन से ग्रहण किया जाता है। ६८. उस नैषद्यिक व्रती को रात्रि के तीन प्रहरों में से एक प्रहर में उठकर चंक्रमण करना चाहिये। ई-पथों में से शयन ही उसके लिये विहित नहीं है। यह इसका विधान है। ६९. प्रभेद से यह भी तीन प्रकार का है। उनमें १. उत्कृट के लिये न तो किसी सहारे का पीठ का टेकना.न'दस्सपल्लत्थिका' ('कपडा या रूई को गोल कर बनाया हआ मसनद.जिससे पीठ को सहारा दिया जा सके ।) न 'आयोगपट्ट' (वस्त्र आदि के द्वारा स्वशरीर को किसी खूटी आदि अचल पदार्थ से बाँधे रखना, ताकि शरीर की निषीदन-अवस्था में बाधा न आवे) ही विहित है १२. मध्यम के लिये इन तीनों में से कोई भी विहित है। ३. निम्न के लिये पीठ टेकना भी. दुस्सपल्लत्थिका भी, आयोगपट्ट भी, तकिया भी, पञ्चाङ्ग एवं सप्ताङ्ग भी विहित है। पीठ के लिये टेक के साथ बनाये गये चार पाद वाले आसन को पञ्चाङ्ग कहते हैं। पीठ के लिये टेक के साथ ही, दोनों हाथों के लिये भी टेक के लिये बनाये गये चार पाद वाले आसन को सप्ताङ्ग कहते हैं। सम्भवतः इसे पीठाभय स्थविर के लिये पहले-पहल बनवाया गया था। स्थविर अनागामी होकर परिनिवृत्त हुए थे। ७० इन तीनों का ही धुताङ्ग इनके द्वारा शय्या का सेवन (उपयोग) करते ही भङ्ग हो जाता है। यह भेद है।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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