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________________ १०९ २. धुत्तङ्गनिद्देस १२. यथासन्थतिकडकथा ६२. यथासन्थतिक] पि "सेनासनलोलुप्पं पटिक्खिपामि", "यथासन्थतिकङ्गं समादियामी" ति इमेसं अञतरवचनेन समादिन्नं होति। ६३. तेन पन यथासन्थतिकेन यदस्स सेनासनं "इदं तुम्हं पापुणाती" ति गाहितं होति, तेनेव तुटुब्ब, न अओ उट्ठापेतब्बो । इदमस्स विधानं। ६४. पभेदतो पन अयं पि तिविधो होति; तत्थ-१.उक्टो अत्तनो पत्तसेनासनं दूरे ति वा अच्चासन्ने ति वा, अमनुस्सदीघजातिका उपद्भुतं ति वा, उण्हं ति वा सीतलं ति वा पुच्छितुं न लभति। २. मज्झिमो पुच्छितुं लभति, गन्त्वा पन ओलोकेतुं न लभति। ३. मुदुको गन्त्वा ओलोकेत्वा सचस्स तं न रुच्चति, अङगहेतुं लभति। ६५. इमेसं पन तिण्णं पि सेनासनलोलुप्पे उप्पन्नमत्ते धुतङ्गं भिज्जती ति। अयमेत्थ भेदो। ६६. अयं पनानिसंसो-"यं लद्धं तेन तुट्ठब्बं" (खु० ३: १-३१) ति वुत्तोवादकरणं, सब्रह्मचारीनं हितेसिता, हीनपणीतविकप्पपरिच्चागो, अनुरोधविरोधप्पहानं, अत्रिच्छताय द्वारपिदहनं, अप्पिच्छतादीनं अनुलोमवुत्तिता ति। यं लद्धं तेन सन्तुट्ठो यथासन्थतिको यति। निम्बिकप्पो सुखं सेति तिणसन्थरणेसु पि॥ न सो रज्जति सेट्ठम्हि हीनं लद्धा न कुप्पति। १२. यथासंस्तृतिकाज (यथासन्थतिकङ्ग) ६२. यथासंस्तृतिकाङ्ग भी "१. शयनासन के प्रति लोलुपता का परित्याग करता हूँ", या २."यथासंस्तृतिकाङ्ग का ग्रहण करता हूँ"- इनमें से किसी एक देशनावचन के द्वारा ग्रहण किया जाता है। ६३. उस यथासंस्तृतिक को जो भी शयनासन 'यह आपके लिये है'-इस प्रकार कहकर दिया जाय, उसी से सन्तुष्ट रहना चाहिये। किसी दूसरे को उसे (उसके आसन से) नहीं उठाना चाहिये । यह इसका विधान है। ६४. प्रभेद से यह भी तीन प्रकार का होता है। उनमें- १. उत्कृष्ट यह नहीं पूछ सकता है कि क्या मेरा शयनासन दूर है या बहुत पास है? यहाँ वहाँ अमनुष्यों या दीर्घजातिक (सर्प आदि) का उपद्रव हो सकता है? अथवा गर्म है या शीतल है? २. मध्यम पूछ सकता है, किन्तु जाकर निरीक्षण नहीं कर सकता। ३. निम्न जाकर, देखकर, यदि उसे न रुचे तो दूसरा ग्रहण कर सकता है। ६५. इन तीनों का भी धुताङ्ग शयनासन के प्रति लोलुपता उत्पन्न होते ही भङ्ग हो जाता है। यह भेद है। ६६. इसका माहात्म्य यह है-"जो मिले उससे सन्तोष करना चाहिये"- इस भगवद्वचन का पालन, साथियों का हितैषी होना, 'यह हीन है', 'यह उत्तम है'-ऐसे विकल्प (ऊहापोह) का परित्याग, सहमति एवं विरोध का प्रहाण, अत्यधिक इच्छा के द्वार बन्द करना, अल्पेच्छता आदि के समनुरूप होना। जो मिल जाय उसी से सन्तुष्ट यथासंस्तृतिक यति विकल्परहित होकर घास के बिछौने पर भी सुखपूर्वक सोता है।।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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