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________________ १०८ विसुद्धिमग्ग सुसाने खेपेत्वा पच्छिमयामे पटिक्कमितुं वट्टती ति अङ्गुत्तरभाणका । अमनुस्सानं पियं तिलपिट्ठमासभत्तमच्छमंसखीरतेलगुळादिखज्जभोज्जं न सेवितब्बं । कुलगेहं न पविसितब्ब ति । इदमस्स विधानं । ५९. पभेदतो पन अयं पि तिविधो होति । तत्थ - १. उक्कट्ठेन यत्थ धुवडाहध्रुवकुणपधुवरोदनानि अत्थि, तत्थेव वसितब्बं । २. मज्झिमस्स तीसु एकस्मिपि सति वट्टति । ३. मुदुकस्स वुत्तनयेन सुसानलक्खणं पत्तमत्ते वट्टति । ६०. इमे पन तिण्णं पि न सुसानम्हि वासं कप्पेन धुतङ्गं भिज्जति । सुसानं अगतदिवसे ति अङ्गुत्तरभाणका । अयमेत्थ भेदो । ६१. अयं पनानिसंसो— मरणसमसतिपटिलाभो, अप्पमादविहारिता, असुभनिमित्ताधिगमो, कामरागविनोदनं, अभिण्हं कायसभावदस्सनं, संवेगबहुलता, आरोग्यमदादिप्पहानं, भयभेरवसहनता, अमनुस्सानं गरुभावनीयता, अप्पिच्छतादीनं अनुलोमवृत्तिता ति । सोसानिकं हि मरणानुसतिप्पभावा निद्दागतं पि न फुसन्ति पमाददोसा । सम्पस्सतोच कुणपानि बहूनि तस्स कामानुभाववसगं पि न होति चित्तं ॥ संवेगमेति विपुलं न मदं उपेति सम्मा अथो घटति निब्बुतिमेसमानो । सोसानिकङ्गमिति नेकगुणावहत्ता निब्बाननिन्नहदयेन निसेवितब्बं ॥ ति ॥ अयं सोसानिकङ्गे समादानविधानप्यभेदभेदानिसंसवण्णना ॥ नहीं है । अङ्कोत्तरभाणक कहते हैं कि रात्रि के मध्यम प्रहर को श्मशान में बिताकर पिछले प्रहर में लौटना चाहिये। (श्माशानिक को) अमनुष्यों को प्रिय लगने वाले खाद्य पदार्थ जैसे- तिल की पिट्ठी (= कसार), उर्द मिला कर बनाया गया चावल, मछली, मांस, दूध, तेल, गुड़ आदि खाद्य-भोज्य नहीं खाना चाहिये। ऐसे घरों में, जहाँ परिवार रहते हों, नहीं जाना चाहिये। यह इसका विधान है। ५९. प्रभेद से यह भी तीन प्रकार का होता है। इनमें इस अङ्ग के १. उत्कृष्ट साधक को जहाँ निरन्तर शव दाह होता हो, जहाँ निरन्तर शव पड़े रहते हों, जहाँ हमेशा रोना-पीटना मचा रहता हो वहीं रहना चाहिये। २. मध्यम के लिये तीनों में से एक के भी होने पर (रहना) विहित है । ३ निम्न के लिये पूर्वोक्त श्मशान का लक्षण प्राप्त होने मात्र से वहाँ रहना विहित है। ६०. इन उत्कृष्ट आदि तीनों का भी धुताङ्ग किसी ऐसे स्थान में, जो श्मशान नहीं है, निवास करते ही भङ्ग हो जाता है । परन्तु अङ्कोत्तरभाणक कहते हैं कि जिस दिन श्मशान नहीं जाता उस दिन । यह भेद है। ६१. और इसका माहात्म्य यह है-मृत्यु की स्मृति का बने रहना, अप्रमाद के साथ विहार, अशुभ निमित्त की प्राप्ति, काम-राग का निराकरण, निरन्तर शरीर के स्वभाव (= अशुचि, नश्वरता आदि) का दर्शन, संवेग (वैराग्य) की अधिकता, आरोग्य के अभिमान का प्रहाण, भय एवं भयङ्करता के प्रति सहनशीलता, अमनुष्यों के लिये सम्मान ( = गौरव) का पात्र होना, अल्पेच्छता आदि के समनुरूप होना । माशानिक को मरणानुस्मृति के प्रभाव से नींद में भी प्रमाद से उत्पन्न होने वाले दोष स्पर्श नहीं कर पाते । अनेक शवों को देखते हुए, उसका चित्त कामराग के वशीभूत नहीं होता ।। अत्यधिक संवेग उत्पन्न होता है, अभिमान नहीं होता। निर्वाण का अन्वेषण करते हुए भलीभाँति उद्योग करता है। इसलिये जिसका हृदय निर्वाण की ओर झुका हुआ हो, उसे अनेक गुणों के उत्पादक इस श्माशानिकाङ्ग का सेवन करना चाहिये ।। यह श्माशानिकाङ्ग के विषय में ग्रहण, विधान, प्रभेद, भेद एवं माहात्म्य है ।।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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