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अयंजन
२. धुत्तङ्गनिद्देस
१०७ पविवेकरसस्सादं नचिरस्सेव विन्दति। यस्मा, तस्मा हि सप्पो अब्भोकासरतो सिया ॥ ति॥
अयं अब्भोकासिकङ्गे समादानविधानप्पभेदभेदानिसंवण्णना॥
११. सोसानिकङ्गकथा ५७. सोसानिकङ्गे पि “न सुसानं पटिक्खिपामि", "सोसानिकङ्गं समादियामी" ति इमेसं अञ्जतरवचनेन समादिन्नं होति।
५८. तेन पन सोसानिकेन यं मनुस्सा गामं निवेसन्ता "इदं सुसानं" ति ववत्थपेन्ति, न तत्थ वसितब्बं । न हि मतसरीरे अज्झापिते तं सुसानं नाम होति, झापितकालतो पन पट्ठाय सचे पि द्वादसवस्सानि छड्डितं, तं सुसानमेव।
तस्मि पन वसन्तेन चकम-मण्डपादीनि कारेत्वा मञ्चपीठं पञपेत्वा पानीयपरिभोजनीयं उपट्ठापेत्वा धम्मवाचेन्तेन न वसितब्बं । गरुकं हि इदं धुतङ्गं, तस्मा उप्पन्नपरिस्सयविघातत्थाय सङ्घत्थेरं वा राजयुत्तकं वा जानापेत्वा अप्पमत्तेन वसितब्बं । चङ्कमन्तेन अद्धक्खिकेन आळाहनं ओलोकेन्तेन चङ्कमितब्बं।
__ सुसानं गच्छन्तेनापि महापथा उक्कम्म उप्पथमग्गेन गन्तब्बं । दिवा सेव आरम्मणं ववत्थपेतब्बं । एवं हिस्स तं रत्तिं भयानकं न भविस्सति, अमनुस्सा रत्तिं विरवित्वा विरवित्वा आहिण्डन्ता पि न केनचि पहरितब्बा। एकदिवसं पि सुसानं अगन्तुं न वट्टति । मज्झिमय में
क्योंकि वह शीघ्र ही एकान्तचिन्तन (-प्रविवेक) का रसास्वादन करता है, अतः प्रज्ञ वान् भिक्षु खुले मैदान में रहने का अभ्यास करे।। - यह आभ्यवकाशिकाज के विषय में ग्रहण, विधान, प्रभेद, भेद माहात्म्य का वर्णन हुआ।।
११.श्माशानिकाङ्ग ५७.श्माशानिकाङ्ग भी १. "श्मशान का परित्याग नहीं करूँगा" या २ "श्माशानिकाङ्ग को ग्रहण करता हूँ"- इनमें से किसी एक देशना-वचन से ग्रहण किया जाता है।
५८ उस श्माशानिक साधक को केवल इसलिये किसी स्थान पर नहीं रहना चाहिये कि गाँव बसाने वालों ने उसके विषय में "यह श्मशान है"-ऐसा मान लिया है। क्योंकि जब तक वहाँ कोई मृत शरीर जलाया न जाय, तब तक वह श्मशान नहीं है। किन्तु , यदि शव एक बार जला दिया गया तो, जलाने के समय से वह श्मशान है, भले ही फिर बारह वर्ष तक भी उसे छोड़ दिया जाय (=उसमें शव न जलाया जाय)।
उसमें रहने वाले को चंक्रमण-मण्डप आदि बनवाकर, चारपाई या चौकी बिछाकर, पीने एवं नहाने-धोने का पानी रखवा कर धर्म-ग्रन्थ बाँचते हुए नहीं रहना चाहिये। यह धुताङ्ग कठिन है, इसलिये उससे उत्पन्न (हो सकने वाले) उपद्रव (=परिश्रय) को मिटाने के लिये सद्ध-स्थविर या राज कर्मचारी को सूचित करके अप्रमाद के साथ रहना चाहिये। चंक्रमण करते हुए आँखों को आधा खोले हए श्मशान की ओर देखते हए चंक्रमण करना चाहिये।
श्मशान की ओर जाते समय भी उसे मुख्य मार्ग को छोड़कर उन्मार्ग से जाना चाहिये। दिन में ही आलम्बन को अच्छी तरह देखकर मन में जमा लेना चाहिये । यों करने से उसके लिये वह रात्रि भयानक नहीं होगी। अमनुष्यों ( भूत-प्रेतों आदि) के कोलाहल करते हुए घूमते रहने पर भी (उनमें से किसी पर) किसी चीज से प्रहार नहीं करना चाहिये। एक दिन के लिये भी श्मशान न जाना विहित