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________________ १०६ विसुद्धिमग्ग "सालाय ठस्सामी" ति वेगेन गन्तुं न वट्टति। पकतिगतिया गन्त्वा पवितुन पन याव वस्सूपरमा ठत्वा गन्तब्बं ति। इदमस्स विधानं। रुक्खमूलिकस्सापि एसेव नयो। ५४. पभेदतो पन अयं पि तिविधो होति। तत्थ–१. उक्छस्स रुक्खं वा पब्बतं वा गेहं वा उपनिस्साय वसितुं न वट्टति । अब्भोकासे येव चीवरकुटिं कत्वा वसितब्बं । २. मज्झिमस्स रुक्खपब्बतगेहानि उपनिसाय अन्तो अप्पविसित्वा वसितुं वट्टति । ३. मुदुकस्स अच्छन्नमरियादं पब्भारं पि साखामण्डपो पि पीठपटो पि खेत्तरक्खकादीहि छड्डिता तत्रट्ठककुटिका पि वट्टती ति। ५५. इमेसं पन तिण्णं पि वासत्थाय छन्नं वा रुक्खमूलं वा पविट्ठक्खणे धुतङ्गं भिज्जति । जानित्वा तत्थ अरुणं उट्ठापितमत्ते ति अङ्गुत्तरभाणका। अयमेत्थ भेदो। ५६. अयं पनानिसंसो-आवासपलिबोधुपच्छेदो, थीनमिद्धपनूदनं, "मिगा विय असङ्गचारिनो, अनिकेता विहरन्ति भिक्खवो" (सं०१-२००) ति पसंसाय अनुरूपता, निस्सङ्गता, चातुद्दिसता, अप्पिच्छतादीनं अनुलोमवुत्तिता ति। अनगारियभावस्स अनुरूपे अदुल्लभे। तारामणिवितानम्हि चन्ददीप्पभासिते॥ अब्भोकासे वसं भिक्खु मिगभूतेन चेतसा। . थीनमिद्धं विनोदेत्वा भावनारामतं सितो॥ तो "शाला में प्रवेश करूँ।"-ऐसा सोच, दौड़कर जाना उचित नहीं है। स्वाभाविक गति से जाकर प्रवेश करना चाहिये। एवं जब तक वर्षा होती रहे तब तक ठहर कर (आगे) जाना चाहिये। यह इसका विधान है। (पूर्वाक्त) वृक्षमूलिक के लिये भी यही विधि है। ५४. प्रभेद से यह भी तीन प्रकार का होता है। इनमें १. इस अङ्ग के उत्कृष्ट व्रती को वृक्ष, पर्वत या घर के पास नहीं रहना चाहिये । खुले स्थान पर चीवर का तम्बू बनाकर रहना विहित है। २. मध्यम साधक वृक्ष, पर्वत या घर के समीप (=उनकी आड़ में) रह सकता है, किन्तु वहाँ अन्त प्रवेश करना (=उनकी छाया में आना) विहित नहीं है। और ३.निम्न व्रती के लिये ऐसी गुफा जिसमें मर्यादा (गुफा के ऊपर पत्थर को काट कर छज्जे जैसा बना दिया जाना कि पानी गुफा में न घुसे) न काटी गयी हो, लता-मण्डप, गोंद से कड़ा किया गया कपड़ा (=पीठपट), खेत के रखवालों के द्वारा वहाँ छोड़ी गयी कुटी (=मचान) भी विहित है। ५५. इन तीनों का धृताङ्ग, निवास करने के प्रयोजन से, छाये हए स्थान या वृक्ष के नीचे प्रविष्ट होते ही भङ्ग हो जाता है। अङ्कोत्तर-भाणक (अङ्गुत्तरनिकायमतानुयायी) कहते हैं-"जानबूझकर वहाँ सूर्योदय के समय बने रहने मात्र से। ये भेद है। ५६. इस अङ्ग का यह माहात्म्य है-आवासविषयक विघ्न-बाधाओं का विनाश, शारीरिक व मानसिक आलस्य (-स्त्यान, मृद्ध) का दूर होना, "भिक्षु लोग मृग के समान अकेले एवं गृहरहित होकर विहार करते हैं"-इस प्रशंसा के अनुरूप होना, संसर्गरहित होना (निःसङ्गता), चारों दिशाओं में जा सकना, अल्पेच्छता आदि के समनुरूप होना। __गृह-रहित होकर प्रव्रज्यानुकूल भावना के अनुरूप सुलभ, तारागणरूपी मणियों के वितान के समान, जिसमें चन्द्रमारूपी दीपक से प्रकाश हो रहा हो। ऐसे आकाश के नीचे रहते हुए भिक्षु मृग के समान (सजग) मन से स्त्यान-मृद्ध को दूर कर, भावना करने में लगा हुआ हो।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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