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________________ २. घुत्तङ्गनिस निवासो पविवित्तस्स रुक्खमूलसमो कुतो ॥ आवासमच्छेरहरे देवतापरिपालिते । पविवित्ते वसन्तो हि रुक्खमूलम्हि सुब्बतो ॥ अभिरत्तानि नीलानि पण्डूनि पतितानि च । पस्सन्तो तरुपण्णानि निच्चस पनूदति ॥ तस्मा हि बुद्धदायज्जं भावनाभिरतालयं । विवित्तं नातिमञ्ञेय्य रुक्खमूलं विचक्खणो ॥ ति ॥ १०५ अयं रुक्खमूलिकङ्गे समादानविधानप्यभेदभेदानिसंसवण्णना ॥ १०. अब्भोकासिकङ्गकथा ५२. अब्भोकासिकङ्गं पि " छन्नं च रुक्खमूलं च पटिक्खिपामि”, “अब्भोकासिकङ्गं समादियामी" ( वि० ३ - १०० ) ति इमेसं अञ्ञतरवचनेन समादिन्नं होति । ५३. तस्स पन अब्भोकासिकस्स धम्मस्सवनाय वा उपोसथत्थाय वा उपोसथागारं पविसितुं व ृति, सचे पविट्ठस्स देवो वस्सति, देवे वस्समाने अनिक्खमित्वा वस्सूपरमे निक्खमितब्बं । भोजनसालं वा अग्गिसालं वा पविसित्वा वत्तं कातुं, भोजनसालाय थेरे भिक्खू भत्तेन आपुच्छितुं उद्दिसन्तेन वा उद्दिसापेन्तेन वा छन्नं पविसितुं, बहि दुन्निक्खित्तानि मञ्चपीठादीनि अन्तोपवेसेतुं च वट्टति । सचे मग्गं गच्छन्तेन वुड्ढतरानं परिक्खारो गहितो होति, देवे वस्सन्ते मग्गमज्झे ठितं सालं पविसितुं वट्टति । सचे न किञ्चि गहितं होति, आवासविषयक मात्सर्य को हर लेने वाले, देवताओं द्वारा परिपालित, वृक्ष के नीचे, एकान्त में निवास करते हुए यह सुव्रत । प्रारम्भ में लाल, फिर नीले (नीलिमा लिये हुए हरे) एवं अन्त में सूखने से पीले पत्तों को गिरते हुए देखकर नित्यसंज्ञा का त्याग कर देता है ।। इसलिये बुद्ध से उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त, भावनाओं में रत रहने वालों के घर के समान एकान्त वृक्षमूल की बुद्धिमान् भिक्षु उपेक्षा न करे ।। यह वृक्षमूलिकाङ्ग के विषय में ग्रहण, विधान, प्रभेद, भेद एवं माहात्म्य का वर्णन है !। १०. आभ्यवकाशिकाङ्ग ५२. आभ्यवकाशिकाङ्ग (अब्भोकासिकङ्ग) भी १ " छत एवं वृक्षमूल का परित्याग करता हूँ". २. "आभ्यवकाशिकाङ्ग का ग्रहण करता हूँ"- इनमें से किसी एक देशनावचन से ग्रहण किया जाता है । ५३ (क) उस आभ्यवकाशिक के लिये, धर्मश्रवण हेतु या उपोसथ के लिये उपोसथगृह में प्रवेश करना विहित है। (ख) यदि प्रवेश करने के बाद वर्षा होने लगे तो वर्षा के समय बाहर न निकल कर वर्षा रुक जाने पर निकलना चाहिये। (ग) भोजनशाला या अग्निशाला में जाकर आवश्यक कार्य करने के लिये भोजनशाला में जाकर स्थविर भिक्षुओं को भोजन हेतु पूछने के लिये या पढ़ने और पढ़ाने के लिये, बाहर रखी हुई चारपाई चौकी आदि को भीतर रखने के लिये यदि (छाये हुए स्थान ) के भीतर प्रवेश करना पड़े तो वह विहित है । (घ) यदि मार्ग मे जाते समय अपने से बड़े (भिक्षुओ) का सामान लिये हुए हो और वर्षा होने लगे, तो मध्य मार्ग मे (किसी ) विश्रामशाला में प्रवेश करना विहित है। (ङ) यदि कुछ नहीं लिया हो \
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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