________________
विशुद्धिमग्ग
४८. तेन पन रुक्खमूलिकेन सीमन्तरिकरुक्खं चेतियरुक्खं निय्यासरुक्खं, फलरुक्खं, वग्गुलिरुक्खं, सुसिररुक्खं, विहारमज्झे ठितरुक्खं ति इमे रुक्खे विवज्जेत्वा विहारपच्चन्ते ठितरुक्खो गहेतब्बो ति । इदमस्स विधानं ।
१०४
४९. पभेदतो पन अयं पि तिविधो होति । तत्थ - १. उक्कट्ठो यथारुचितं रुक्खं गहेत्वा पटिजग्गापेतुं न लभति । पादेन पण्णसटं अपनेत्वा वसितब्बं । २. मज्झिमो तं ठानं सम्पत्तेहि येव पटिजग्गापेतुं लभति । ३. मुदुकेन आरामिकसमणुद्दसे पक्कोसित्वा सोधापेत्वा समं कारापेत्वा वालुकं ओकिरापेत्वा पाकारपरिक्खेपं कारापेत्वा द्वारं योजापेत्वा वसितब्बं । महदिवसे पन रुक्खमूलिकेन तत्थ अनिसीदित्वा अञ्ञत्थ पटिच्छन्ने ठाने निसीदितब्बं । ५०. इमेसं पन तिण्णं पि छन्ने वासं कप्पितक्खणे धुतङ्गं भिज्जति । जानित्वा छन्ने अरुणं उट्ठापितमत्ते ति अङ्गुत्तरभाणका । अयमेत्थ भेदो।
५१. अयं पनानिससो- "रुक्खमूलसेनासनं निस्साय पब्बज्जा" (वि० ३- १०० ) ति वचनतो निस्सयानुरूपपटिपत्तिसब्भावो, "अप्पानि चेव सुलभानि च तानि च अनवज्जानी" (अ० नि० २-२९) ति भगवता संवण्णितपच्चयतया, अभिण्हं तरुपण्णविकारदस्सनेन अनिच्चसञ्ञासमुट्ठापनता, सेनासनमच्छेरकम्मारामतानं अभावो, देवताहि सहवासिता, अप्पिच्छतादीनं अनुलोमवृत्तिता ति ।
तो बुद्धसेन निस्सयो ति च भासितो ।
९. वृक्षमूलिका
४७ वृक्षमूलिकाङ्ग भी, १ " छाये हुए घर का त्याग करता हूँ". २ "वृक्षमूलिकाङ्ग का ग्रहण करता हूँ" - इनमें से किसी एक देशनावचन के द्वारा ग्रहण किया जाता है।
४८ जिस वृक्षमूलिक व्रती को सीमा (=सङ्घ की सीमा) के समीप के वृक्ष, चैत्य वृक्ष, गोंद के वृक्ष, फलदार वृक्ष, जिस पर चमगादड़ रहते हों - ऐसे वृक्ष, कोटर (= छिद्र) वाले वृक्ष, विहार के बीच में उगे हुए वृक्ष - इन वृक्षो को छोड़कर, विहार के सीमावर्ती किसी स्थिर वृक्ष का ग्रहण करना चाहिये । यह इसका विधान है।
४९ प्रभेद से यह भी तीन प्रकार का होता है। इनमें १ उत्कृष्ट साधक यथारुचि वृक्ष का ग्रहण करने के बाद उस स्थान को साफ-सुथरा नहीं करवा सकता। उसे केवल पैर से सूखे पत्तों को हटाकर रहना चाहिये । २ मध्यम साधक वहाँ संयोगवश आये हुए लोगों से साफ सुथरा करवा सकता है । ३ निम्न साधक को विहार के श्रामणेरों को बुलाकर साफ व बराबर करवाकर बालू छिटवा कर, चहारदीवारी बनवाकर, उसमें दरवाजा लगवाकर रहना चाहिये। किन्तु उत्सव के दिन वृक्षमूलिक को वहाँ न बैठकर किसी दूसरी जगह आड में बैठना चाहिये ।
·
५० इन तीनो का भी छत के नीचे निवास करते ही धुताङ्ग भङ्ग हो जाता है। अङ्कोत्तरभाणक कहते है - " जान-बूझकर छाये हुए स्थान मे सूर्योदय के समय रहने पर" । यह यहाँ भेद है। ५१ पुन अङ्ग का यह माहात्म्य है-"वृक्षमूल वाले शयनासन के सहारे प्रव्रज्या है" इस वचन के अनुसार निश्रय के अनुरूप प्रतिपत्ति का होना, "अल्प है, किन्तु सुलभ और निर्दोष है" इस प्रकार भगवान् द्वारा प्रशसित होने से, निरन्तर वृक्ष के पत्तो का विकार (= परिवर्तन) देखने से अनित्य सज्ञा का उदित होना, शयनासन के प्रति मात्सर्य का हान एव प्रतिक्षण काम मे लगे रहने की प्रवृत्ति (=कम्मारामता) का अभाव, देवताओ के साथ निवास, अल्पेच्छा आदि के समनुरूप होना ।
एकान्तनिवास के लिये श्रेष्ठ बुद्ध द्वारा वर्णित और निश्रय बतलाये गये वृक्षमूल के समान दूसरा निवास कहाँ ! ।।