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________________ २. धुत्तङ्गनिद्देस १०३ निद्दायन्तानं अरुणं उट्ठहति, अत्तनो वा रुचिया गामन्तसेनासने अरुणं उट्ठापेन्ति, धुतङ्गं भिज्जती ति अयमेत्थ भेदो।। ४६. अयं पनानिसंसो-आरञिको भिक्खु अरञ्जसझं मनसिकरोन्तो भब्बो अलद्धं वा समाधिं पटिलद्धं, लद्धं वा रक्खितुं । सत्था पिस्स अत्तमनो होति । यथाह"तेनाहं, नागित, तस्स भिक्खुनो अत्तमनो होमि अरञविहारेना" (अं० ३-८५) ति। पन्तसेनासनवासिनो चस्स असप्पायरूपादयो चित्तं न विक्खिपन्ति, विगतसन्तासो होति, जीवितनिकन्ति जहति, पविवेकसुखरसं अस्सादेति, पंसुकूलिकादिभावो पि चस्स पतिरूपो होती ति। पविवित्तो असंसट्टो पन्तसेनासने रतो। आराधयन्तो नाथस्स वनवासेन मानसं ॥ एको अरजे निवसं यं सुखं लभते यति। रसं तस्स न विन्दन्ति अपि देवा सइन्दका ॥ पंसुकूलं च एसो व कवचं विय धारयं । अरञसङ्गामगतो अवसेसधुतायुधो॥ समत्थो न चिरस्सेव जेतुं मार सवाहिनि। तस्मा अरञ्जवासम्हि रतिं कयिराथ पण्डितो॥ ति॥ अयं आरञिकने समादानविधानप्पभेदभेदानिसंसवण्णना॥ ९. रुक्खमूलिकङ्गकथा ४७. रुक्खमूलिकङ्गकं पि"छन्नं पटिक्खिपामि", "रुक्खमूलिकङ्गं समादियामी" ति इमेसं अञ्जतरवचनेन समादिन्नं होति। सूर्योदय हो जाने पर भी भङ्ग नहीं होता। किन्तु यदि धर्मोपदेशक के उठ जाने पर भी "कुछ देर सो कर जाऊँगा" ऐसा सोचकर सोते हुए ही सूर्योदय हो जाय, या अपनी रुचि से ग्राम के शयनासन में रहते हुए सूर्योदय हो जाय, तो धुताङ्ग भङ्ग होता है। यह भेद है। ४६. और इस धुताङ्ग का यह माहात्य है-आरण्यक भिक्षु अरण्य-संज्ञा का मनस्कार (=मन में अरण्यवास का विचार) करते हुए अभी तक अप्राप्त समाधि को प्राप्त करने या प्राप्त की रक्षा करने में समर्थ होता है। शास्ता भी इससे प्रसन्न होते हैं। जैसा कि कहा गया है-"नागित, मैं उस भिक्षु के अरण्यविहार से प्रसन्न हूँ" । एकान्तशयनासनवासी इस भिक्षु के चित्त को अनुचित रूप आदि विक्षिप्त नहीं करते। यह चिन्तामुक्त रहता है, जिजीविषा को छोड़ देता है, प्रविवेक सुख के रस का आस्वादन करता है, पाशुकूल आदि स्थितियाँ भी उसके अनुरूप (अनुकूल) होती हैं। सबसे पृथक्, सबसे असम्पृक्त (ग्राम से दूर), एकान्त शयनासन में रत, वनवास के कारण नाथ (बुद्ध) के मन को प्रसन्न करता हुआ, योगी अकेले अरण्य में निवास का जो सुख पाता है, उसके रस को इन्द्रसहित (समस्त) देवता भी नहीं अनुभव कर सकते।। अरण्य-संग्राम (अरण्य में रहते हुए, मार से संग्राम) के लिये गया हुआ योगी, पांशुकूल को कवच की तरह धारण करते हुए एवं शेष धुताङ्गों को आयुधों के रूप में धारण किये हुए, मार-सेना को जीतने में शीघ्र ही समर्थ होता है। इसलिये पण्डित (बुद्धिमान्) अरण्यवास में रति करे।। यह आरण्यकाल के विषय में ग्रहण, विधान, प्रभेद, भेद एवं माहात्म्य का वर्णन है।।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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