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विसुद्धिमग्ग धुवसन्निपातट्ठानं वा बोधि वा चेतियं वा दूरे चे पि सेनासनतो होति, तं परिच्छेदं कत्वा मिनितब्बं ति विनयट्ठकथासु वुत्तं ।
मज्झिमट्ठकथायं पन विहारस्स पि गामस्सेव उपचारं नीहरित्वा उभिन्नं लहुपातानं अन्तका मिनितब्बं ति वुत्तं । इदमेत्थ पमाणं । सचे पि आसन्ने गामो होति, विहारे ठितेहि मानुसकानं सद्दो सुय्यति, पब्बतनदीआदीहि पन अन्तरितत्ता न सका उजुं गन्तुं । यो तस्स पकतिमग्गो होति, सचे पि नावाय सञ्चरितब्बो, तेन मग्गेन पञ्चधनुसतिकं गहेतब्बं । यो पन आसन्नगामस्स अङ्गसम्पादनत्थं ततो ततो मग्गं पिदहति, अयं धुतङ्गचोरो होति।
सचे पन आरञिकस्स भिक्खुनो उपज्झायो वा आचरियो वा गिलानो होति, तेन अरओ सप्पायं अलभन्तेन, गामन्तसेनासनं नेत्वा उपट्ठातब्बो । कालस्सेव पन निक्खमित्वा अङ्गत्तट्ठाने अरुणं उट्ठापेतब्बं । सचे अरुणुट्ठानवेलायं तेसं आबाधो वड्डति, तेसं येव किच्चं कातब्बं । न धुतङ्गसुद्धिकेन भवितब्बं ति। इदमस्स विधानं।
४४. पभेदतो पन अयं पि तिविधो होति । तत्थ-१. उक्छन सब्बकालं अरजे अरुणं उट्ठापेतब्बं । २. मज्झिमो चत्तारो वस्सिके मासे गामन्ते वसितुं लभति। ३.मुदुको हेमन्तिके पि।
४५. इमेसं पन तिण्णं पि यथापरिच्छिन्ने काले अरञतो आगन्त्वा गामन्तसेनासने धम्मस्सवनं सुणन्तानं अरुणे उट्टिते पि धुतङ्गं न भिज्जति। सुत्वा गच्छन्तानं अन्तरामग्गे उट्ठिते पि न भिजति । सचे पन उछिते पि धम्मकथिके 'मुहत्तं निपज्जित्वा गमिस्सामा ति बोधिवृक्ष या चैत्य हो, भले ही वह शयनासन से दूर ही हो तो भी, उसी को सीमा मानते हुए नापना चाहिये-ऐसा विनय की अट्ठकथाओं में कहा गया है। किन्तु मज्झिमनिकाय की अट्ठकथा में कहा है कि विहार एवं ग्राम की परिधियों को छोड़कर, जिस दूरी को नापना है वह दो ढेलों के गिरने के बीच की दूरी है। यह प्रमाण है।
भले ही ग्राम पास में हो और लोगों की बातचीत विहार में रहने वालों को सुनायी पड़े, फिर भी यदि नदी, पर्वत आदि बीच में पड़ जाने से सीधे रास्ते से जाना सम्भव न हो, तो पाँच सौ धनुष की दूरी तक सड़क मार्ग से जाना चाहिये, चाहे भले ही पहले नाव से जाना पड़ता हो । किन्तु जो धुत अङ्ग सम्पादन के लिये जान-बूझकर ग्राम के मार्ग को जहाँ तहाँ पत्थर आदि से रोक देता है, वह 'धुतागचौर' कहा जाता है।
यदि आरण्यक का उपाध्याय या आचार्य रुग्ण हो एवं अरण्य में उसे चिकित्सा न प्राप्त हो सके, तो भिक्षु को उसे ग्राम के शयनासन में ले जाकर सेवा करनी चाहिये। किन्तु समय रहते ही वहाँ से निकल कर अङ्गयुक्त स्थान (=अरण्य) में (ही) सूर्योदय के समय रहना चाहिये । यदि सूर्योदयकाल में रोग बढ़ जाता हो तो उन्हीं का कार्य करना चाहिये। उस समय धुता की शुद्धि को नहीं देखना चाहिये। यह इसका विधान है।
४४. प्रभेद से यह भी तीन प्रकार का होता है। उनमें, १. उत्कृष्ट को सूर्योदय के समय सदा अरण्य में ही होना चाहिये। २. मध्यम व्रती वर्षा के चार महीने ग्राम में रह सकता है। ३. निम हेमन्त में ग्राम में रह सकता है।
४५. इन तीनों का भी धुतात. नियत समय पर अरण्य से आकर ग्राम के शयनासन में धर्मोपदेश सुनते हुए सूर्योदय हो जाने पर भी, भङ्ग नहीं होता। सुनकर जाते समय बीच रास्ते में