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________________ १०१ २. धुत्तङ्गनिस सद्धिं उपचारेन गामो येव गामन्तसेनासनं । गामो नाम यो कोचि एककुटिको वा अनेककुटिको वा, परिक्खित्तो वा अपरिक्खित्तो वा, समनुस्सो वा अमनुस्सो वा, अन्तमसो अतिरेकचातुमास- निविट्ठो यो कोचि सत्थो पि । गामूपचारो नाम परिक्खित्तस्स गामस्स सचे अनुराधपुरस्सेव द्वे इन्दखीला होन्ति, अब्भन्तरिमे इन्दखीले ठितस्स थाममज्झिमस्स पुरिसस्स लेड्डपातो। तस्स लक्खणं—यथा तरुणमनुस्सा अत्तनो बलं दस्सेन्ता बाहं पसारेत्वा लेड्डुं खिपन्ति, एवं खित्तस्स लड्डुस्स पतनट्ठानब्भन्तरं ति विनयधरा । सुत्तन्तिका पन काकनिवारणनियमेन खित्तस्सा ति वदन्ति । अपरिक्खित्तगामे यं सब्बपच्चन्तिमस्स घरस्स द्वारे ठितो मातुगामो भाजनेन उदकं छड्डेति, तस्स पतनट्ठानं घरूपचारो। ततो वुत्तनयेन एको लेड्डपातो गामो, दुतियो गामूपचारो। 11 अरज्ञ पन विनयपरियाये ताव “ठपेत्वा गामं च गामूपचारं च सब्बमेतं अरञ्ञ' (वि० १-५७ ) ति वुत्तं । अभिधम्मपरियाये - "निक्खमित्वा बहि इन्दखीला, सब्बमेतं अर" (अभि० २-३०२ ) ति वुत्तं । इमस्मि पन सुत्तन्तिकपरियाये "आरञ्जकं नाम सेनासनं पञ्चधनुसतिकं पच्छिमं" ति इदं लक्खणं । तं आरोपितेन आचरियधनुना परिक्खित्तस्स गामस्स इन्दखीलतो अपरिक्खित्तस्स पठमलेड्डपाततो पट्ठाय याव विहारपरिक्खेपा मिनित्वा ववत्थपेतब्बं । सचे पन विहारो अपरिक्खित्तो होति, यं सब्बपठमं सेनासनं वा भत्तसाला वा चाहिये। अपनी परिधि (= उपचार, सीमा) के साथ ग्राम ही 'ग्रामान्त-शयनासन' है। ग्राम उसे कहते हैं जो एक झोड़ी वाला हो या अनेक घरों वाला हो, घिरा हुआ हो या न घिरा हुआ, जनसङ्कुल हो या जनशून्य। यहाँ चार मास से अधिक समय से बसा हुआ सार्थ (= काफिला ) भी ग्राम है। ग्राम का उपचार ( पास-पड़ोस ) यह है - प्राकार से घिरे हुए ग्राम के, यदि अनुराधपुर के समान दो इन्द्रकील (=ग्राम के द्वार पर गड़े हुए दो मजबूत चौखट) हों, तो चौखट के भीतर खड़े मध्यम बल वाले पुरुष द्वारा फेंके हुए ढेले के गिरने के स्थान तक । उसका लक्षण है विनयधर के अनुसार जिस प्रकार युवक अपने बल का प्रदर्शन करते हुए बाँह को फैलाकर देला फेंकते हैं, उस प्रकार से फेंका गया ढेला जहाँ गिरे उस स्थान के भीतर उस गाँव की परिधि है; किन्तु सौत्रान्तिक कहते हैं कि कौवे को उड़ाने के लिये फेंके गये ढेले के गिरने के स्थान तक परिधि है । विना घिरे हुए ग्राम में, अन्तिम घर के द्वार पर खड़ी स्त्री बर्तन से जो पानी फेंकती है, वह जिस स्थान पर गिरता है वहाँ तक घर की परिधि है । उक्त प्रकार से फेंके गये ढेले के गिरने के स्थान के भीतर ग्राम है एवं दूसरे ढेले के गिरने की जगह के भीतर ग्राम का पास-पड़ोस ( उपचार ) है। अरण्य-विनय की विधि के अनुसार - "ग्राम एवं ग्राम की परिधि छोड़कर बाकी सब अरण्य हैं। अभिधर्म की विधि के अनुसार - " इन्द्र - कील के बाहर निकल कर सब अरण्य है" । किन्तु सूत्रान्त की विधि के अनुसार - " आरण्यक शयनासन (ग्राम से) पाँच सौ धनुष (२००० हाथ की दूरी पर होता है" - यह लक्षण है। इस नाप की व्यवस्था (व्याख्या) इस प्रकार करनी चाहिये-घिरे हुए ग्राम के इन्द्रकील से आचार्य द्वारा चढ़ाये गये धनुष से लेकर एवं विना घिरे हुए ग्राम के ( विषय में) प्रथम ढेले के गिरने से लेकर विहार की चहारदीवारी तक । यदि विहार में चहारदीवारी न हो, तो जो सर्वप्रथम शयनासन हो, या पाकशाला, सभागृह,
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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