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________________ १०० विशुद्धिमग्ग पवारणा नाम नत्थि, तस्मि पन अज्झोहरियमाने अञ्जं पटिक्खिपितो होति, तस्मा एवं पवारितो पठमपिण्डं अज्झोहरित्वा दुतियपिण्डं न भुञ्जति । २. मज्झिमो यस्मि भोजने पवारितो, तदेव भुञ्जति । ३. मुदुको पन याव आसना न वुट्ठाति ताव भुञ्जति । ४०. इमे पन तिण्णं पि पवारितानं कप्पियं कारापेत्वा भुत्तक्खणे धुतङ्गं भिज्जति । अयमेत्थ भेदो । " ४१. अयं पनानिसंसो - अनतिरित्त भोजनापत्तिया दूरीभावो ओदरिकत्ताभावो, निरामिससन्निधिता, पुनपरियेसनाय अभावो, अप्पिच्छतादीनें अनुलोमवृत्तिता ति । परियेसनाय खेदं न याति न करोति सन्निधिं धीरो । ओदरिकत्तं पजहति खलुपच्छाभत्तिको योगी ॥ तस्मा सुगतपसत्थं सन्तोसगुणादिवुढिसञ्जननं । दोसे विधुनितुकामो भजेय्य योगी धुतङ्गमिदं ॥ ति ॥ अयं खलुपच्छाभत्तिकङ्गे समादानविधानप्पभेदभेदानिसंसवण्णना ॥ ८. आरञ्ञिकङ्गकथा ४२. आरञ्ञिकङ्गं पि " गामन्तसेनासनं पटिक्खिपामि ", " आरञ्ञिकङ्गं समादियामी" ति इमेसं अञ्ञतरवचनेन समादिन्नं होति । ४३. तेन पन आरज्ञिकेन गामन्तसेनासनं पहाय अरजे अरु उठ्ठापेतब्बं । तत्थ ३९. प्रभेद से यह भी तीन प्रकार का होता है। उनमें १ उत्कृष्ट, क्योंकि प्रथम ग्रास के विषय में हाथ खींचना (= प्रवारणा) (वैसे तो) नहीं होता है; किन्तु उसे खाते समय, यदि दूसरे (ग्रास) को देने न दे तो रोकना मान लिया जाता है; इसलिये प्रथम ग्रास को खाते समय यदि दूसरे को रोक दिया रहता है तो फिर से दूसरा ग्रास लेकर नहीं खाता। २. मध्यम जिस ग्रास के बाद निषेध कर चुका होता है, उसे ही खाता है। किन्तु ३ निम्न जब तक आसन से नहीं उठता तब तक खाता है। ४०. इन तीनों का भी धुताङ्ग, निषेध कर देने के बाद फिर से स्वीकार कर खाते ही, टूट जाता है। यह इसका भेद है। ४१. इस धुताङ्ग का यह माहात्म्य है- अतिरिक्त भोजन न करने के कारण आपत्ति से दूर रहना, उदरपूर्ति से अधिक न खाना, अन्न का संग्रह न करना, पुनः भोजन के लिये अन्वेषण का अभाव, अल्पेच्छता आदि के समनुरूप होना । खलुपश्चाद्भक्ति योगी भोजन के अन्वेषण का कष्ट नहीं उठाता, सञ्चय नहीं करता एवं पेटूपन (औदरिकत्व) का भी त्याग करता है ।। इसलिये दोषों को नष्ट कर देने की इच्छा रखने वाले योगी को सुगत द्वारा प्रशंसित एवं सन्तोष आदि गुणों की वृद्धि करने वाले इस धुताङ्ग का पालन करना चाहिये ।। यह खलुपश्चाद्भक्तिक के विषय में विधान, प्रभेद, भेद एवं माहात्म्य ग्रहण का वर्णन है। ८. आरण्यका " ४२. अष्टम आरण्यकाङ्ग भी, १. "ग्राम के शयनासन का त्याग करता हूँ" २ का ग्रहण करता हूँ"-इनमें से किसी एक देशनावचन से ग्रहण किया जाता है। ४३. उस आरण्यक को ग्राम के शयनासन का त्याग कर सूर्योदय के समय अरण्य में होना 'आरण्यकाङ्ग
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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