________________
२. धुत्तङ्गनिस
९९
नामेसो । ३. मुदुको पन पत्तयोगी नाम होति, तस्स यं सक्का होति पत्ते पक्खिपितुं, सब्बं हत्थेन वा दन्तेहि वा भिन्दित्वा खादितुं वट्टति ।
३५. इमेसं पन तिण्णं पि दुतियकभाजनं सादितक्खणे धुतङ्गं भिज्जति । अयमेत्थ
भेदो ।
३६. अयं पनानिसंसो—नानारसतण्हाविनोदनं, अत्रिच्छताय पहानं, आहारे पयोजनमत्तदस्सिता, थालकादिपरिहरणखेदाभावो, अविक्खित्तभोजिता, अप्पिच्छतादीनं अनुलोमवृत्तिताति ।
नानाभाजनविक्खेपं हित्वा ओक्खित्तलोचनो । खणतो वि मूलानि रसतण्हाय सुब्बतो ॥ सरूपं विय सन्तु धारयन्तो सुमानसो ।
परिभुजेय्य आहारं को अञ्ञो पत्तपिण्डिका ॥ ति ॥
अयं पत्तपिण्डिकङ्गे समादानविधानप्यभेदभेदानिसंसवण्णना ॥ ७. खलुपच्छाभत्तिकङ्गकथा
३७. खलुपच्छाभत्तिकङ्गं पि" अतिरित्तभोजनं पटिक्खिपामि”, “खलुपच्छाभत्तिकङ्गं समादियामी" ति इमेसं अञ्ञतरवचनेन समादिन्नं होति ।
३८. तेन पन खलुपच्छाभत्तिकेन पवारेत्वा पुन भोजनं कप्पियं कारेत्वा न भुञ्जितब्बं । इदमस्स विधानं ।
३९. पभेदतो पन अयं पि तिविधो होति । तत्थ - १. उक्कट्ठो यस्मा पठमपिण्डे 'हस्तयोगी' (करपात्र) कहते हैं । ३. निम्न को 'पात्रयोगी' कहते हैं। उसके लिये विधान है कि जो कुछ भी पात्र में डाला जा सकता है, उस सबको वह हाथ से तोड़कर या दाँत से काट कर खा सकता है।
३५. इन तीनों का धुताङ्ग दूसरे पात्र को ग्रहण करते ही भङ्ग हो जाता है। यह यहाँ भेदविनिश्चय हुआ ।
३६. इस व्रत का माहात्म्य यह है- अनेक प्रकार के रसों के आस्वादन की तृष्णा का उच्छेद, भोजन की अत्यधिक इच्छा का प्रहाण, आहार में शरीर-रक्षा आदि प्रयोजनमात्र को देख ना. थाली आदि ढोने की परेशानी का अभाव, विक्षेपरहित होकर भोजन करना, अल्पेच्छता आदि के समनुरूप होना ।
अनेक पात्रों के होने से उत्पन्न होने वाले विक्षेप का नाश कर, नीची दृष्टि एवं श्रेष्ठ व्रत को धारण किये हुए, रस- तृष्णा की जड़ को मानो खोदते हुए, अपने अनुरूप सन्तोष किये हुए पात्रपिण्डिक व्रती के अतिरिक्त और भला कौन (इस प्रकार) आहार का परिभोग करेगा ! ।।
यह पात्रपिण्डिकां के विषय में ग्रहण, विधान, प्रभेद, भेद और माहात्म्य का वर्णन है ।।
७. खलुपश्चाद्भक्तिकाङ्ग
३७. खलुपश्चाद्भक्तिकाङ्ग भी " १ . अतिरिक्त भोजन का परित्याग करता हूँ, २ "खलुपश्चाद्भक्तिकाङ्ग का ग्रहण करता हूँ" - इनमें से किसी एक देशना - वचन से ग्रहण किया जाता है।
३८. उस खलुपश्चाद्भक्तिक साधक को भोजन कर चुकने के बाद (और लेने से) निषेध कर देने पर फिर से भोजन स्वीकार नहीं करना चाहिये। यह इसका विधान है।