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________________ ९८ विशुद्धिमग्ग इति फासविहारकारणे सुचिसल्लेखरतूपसेविते । जनयेथ विसुद्ध मानसो रतिमेकासनभोजने यती ॥ ति ॥ अयं एकासनिकङ्गे समादानविधानप्पभेदभेदानिसंसवण्णना ॥ ६. पत्तपिण्डिकङ्गकथा ३२. पत्तपिण्डिकङ्गं पि " दुतियभाजनं पटिक्खिपामि", "पत्तपिण्डिकङ्गं समादियामी" ति इमेसं अञ्ञतरवचनेन समादिन्नं होति । ३३. तेन पन पत्तपिण्डिकेन यागुपानकाले भाजने ठपेत्वा व्यञ्जने लद्धे व्यञ्जनं वा पठमं खादितब्बं, यागु वा पातब्बा । सचे पन यागुयं पक्खिपति, पूतिमच्छकादिम्हि ब्यञ्जने पक्खित्ते यागु पटिकूला होति । अप्पटिकूलमेव च कत्वा परिभुञ्जितुं वट्टति । तस्मा तथारूपं ब्यञ्जनं सन्धाय इदं वुत्तं । यं पन मधुसक्करादिकं अप्पटिकूलं होति, तं पक्खिपितब्बं । गहन्तेन च पमाणयुत्तमेव गहितब्बं । आमकसाकं हत्थेन गहेत्वा खादितुं वट्टति । तथा पन अकत्वा पत्ते येव पक्खिपितब्बं । दुतियकभाजनस्स पन पटिक्खित्तत्ता अञ्ञ रुक्खपणं पिन वट्टतीति । इदमस्स विधानं । ३४. पभेदतो पन अयं पि तिविधो होति - तत्थ - १. उक्कट्ठस्स, अञ्ञत्र उच्छुखादन-काला, कचवरं पिछड्डेतुं न वट्टति, ओदनपिण्डमच्छमंसपूर्व पि भिन्दित्वा खादितुं न वट्टति । २. मज्झिमस्स एकेन हत्थेन भिन्दित्वा खादितुं वट्टति, हत्थयोगी इसलिये विशुद्धचित्त यति, सुखपूर्वक विहार के कारण एवं पवित्र उपेक्षा भावना में रति से सेवित एकासन-भोजन के प्रति रुझान ( = रति) उत्पन्न करे ।। यह ऐकासनिकास के विषय में ग्रहण, विधान, प्रभेद, भेद एवं माहात्म्य का वर्णन है ।। ६. पात्रपिण्डिकाङ्ग ३२. षष्ठ पात्रपिण्डिकान भी १ " द्वितीय पात्र ( = भाजन) का त्याग करता हूँ" या २. “पात्रपिण्डिकाङ्ग का ग्रहण करता हूँ"- इनमें से किसी एक देशना -वचन ग्रहण किया जाता है। ३३. पात्र - पिण्डिक को यदि यवागू (= खिचड़ी जैसा पतला भात, जिसे पिया जा सके) पीते समय (किसी दूसरे) पात्र में रखकर व्यञ्जन (कढ़ी आदि) मिले तो उसे या तो पहले व्यञ्जन खा लेना चाहिये या यवागू पी लेनी चाहिये। यदि (उसी) यवागू में (व्यञ्जन) डाल देगा, तो सुखा कर या नमक आदि लगाकर रखी गयी अग्निसिद्ध (पकायी गयी ) मछली (= पूतिमत्स्यक) आदि का व्यञ्जन (यवागू में) डाल देने पर यवागू प्रतिकूल (= हानिकारक ) हो जायगी। उसे, प्रतिकूल न हो, इस प्रकार ही खाना उचित है। (ऐसी स्थिति में पात्र का प्रयोग आवश्यक हो जाता है!) इसलिये उस प्रकार के व्यञ्जन के बारे में यह कहा गया है। किन्तु जो मधु, शक्कर आदि प्रतिकूल नहीं हैं, उन्हें यवागू में ही डाल देना चाहिये। ग्रहण करते समय भी, मात्रा से ग्रहण करना चाहिये। हरी शाक-सब्जी को हाथ में लेकर ही खाना चाहिये। जब तक ऐसा न करे, पात्र में ही डाल देना चाहिये। द्वितीय पात्र को त्याग चुकने से, किसी अन्य वृक्ष का पत्ता भी (पात्र के रूप में) विहित नहीं है। यह इसका विधान है। ३४. प्रभेद से यह तीन प्रकार का होता है। उनमें १ उत्कृष्ट व्रती के लिये तो ईख खाने को छोड़कर अन्य के छिलके आदि भी छोड़ना विहित नहीं है। चावल का ग्रास, मछली, मांस, पुआ भी तोड़कर खाना विहित नहीं है । २. मध्यम के लिये एक हाथ से तोड़कर खाना विहित है। इसे
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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