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२. धुत्तङ्गनिद्देस
पनाह
आचरियो वा उपज्झायो वा आगच्छति, उट्ठाय वत्तं कातुं वट्टति । तिपिटकचूळाभयत्थेरो -" आसनं वा रक्खेय्य भोजनं वा, अयं च विप्पकतभोजनो, तस्मा वत्तं करोतु, भोजनं पन मा भुञ्जतू" ति । इदमस्स विधानं ।
२९. पभेदतो पन अयं पि तिविधो होति । तत्थ उक्कट्ठो अप्पं वा होतु बहु वा, यम्हि भोजने हत्थं ओतारेति, ततो अञ्ञ गण्हितुं न लभति । सचे पि मनुस्सा "थेरेन न किञ्चि भुत्तं" ति सप्पिआदीनि आहरन्ति, भेसज्जत्थमेव वट्टन्ति, न आहारत्थं । मज्झिमो याव पत्ते भत्तं न खीयति, ताव अञ्ञ गण्हितुं लभति । अयं हि भोजनपरियन्तिको नाम होति । मुदुको याव वासना न वुट्ठाति, ताव भुञ्जितुं लभति । सो हि उदकपरियन्तिको वा होति या पत्तधोवनं न गण्हाति ताव भुञ्जनतो, आसनपरियन्तिको वा याव न वुट्ठाति भुञ्जनतो ।
३०. इमेसं पन तिण्णं पि नानासनभोजनं भुत्तक्खणे धुतङ्गं भिज्जति । अयमेत्थ
भेदो ।
३१. अयं पनानिसंसो - अप्पाबाधता, अप्पातङ्कता, लहुट्ठानं, बलं, फासविहारो, अनतिरित्तपच्चया अनापत्ति, रसतण्हाविनोदनं, अप्पिच्छतादीनं अनुलोमवृत्तिता ति । एकासनभोजने रतं न यतिं भोजनपच्चया रुजा । विसहन्ति, रसे अलोलुपो परिहापेति, न कम्ममत्तनो ॥
भोजन समाप्त होने के पहले ही आचार्य या उपाध्याय आ जाँय तो उठकर (प्रणामादि) करणीय (कार्य को) करना चाहिये । किन्तु त्रिपिटक चूड़ाभय स्थविर ने कहा है- "या तो आसन पर बैठा रहकर भोजन समाप्त कर ले, या फिर (यदि भोजन छोड़कर करणीय करता है तो) भोजन दुबारा न करे । यह भोजन समाप्त नहीं कर सका, अतः करणीय करना हो तो करे, किन्तु फिर से भोजन न करे।" यह इसका विधान है।
२९. प्रभेद की दृष्टि से यह भी तीन प्रकार का होता है। इनमें १ उत्कृष्ट व्रती जिस भोजन में हाथ लगा देता है, वह थोड़ा हो या बहुत, उसके अतिरिक्त नहीं ले सकता। यदि लोग 'स्थविर ने कुछ भी नहीं खाया यह सोच घृत-आदि ले आवें तो उसे सोचना चाहिये कि वे घृतादि द्रव्य भैषज्य के लिये ही विहित हैं, आहार के लिये नहीं । २. मध्यम साधक जब तक पात्र में भोजन समाप्त नहीं होता, तब तक ले सकता है। ऐसे साधक को 'भोजनपर्यन्तक' कहा जाता है। ३. निम्न व्रती जब तक आसन से उठता नहीं, तब भोजन कर सकता है। वह जब तक पात्र को धो नहीं देता, तब तक भोजन करने से उदकपर्यन्तक कहा जाता है, या जब तक आसन से नहीं उठता तब तक भोजन करने से 'आसनपर्यन्तक' कहलाता है।
३०. इन तीनों का धुताङ्ग भी, अनेक आसन से (कई बार ) भोजन करते ही, भङ्ग हो जाता है। यह भेद है।
३१. इस व्रत का माहात्म्य यह है- (शरीर में वायुविकार आदि के कारण होने वाले) कष्ट का अल्प होना, रोग आदि का अल्प त्रास होना, हलकापन, बल, सुखपूर्वक विहार, अतिरिक्त (भोजन) के कारण होने वाली आपत्ति का न होना, रस- तृष्णा पर नियन्त्रण, अल्पेच्छता आदि के समनुरूप होना ।
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एकासन पर भोजनरत भिक्षु को भोजन के कारण (उत्पन्न होने वाले) रोग नहीं सताते। और वह रसास्वादन के विषय में लोभरहित हो अपने कार्य की हानि नहीं करता ।।