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विसुद्धिमग पत्तविस्सठट्ठानमेव पञ्जायति । मज्झिमो पुरतो वा पच्छतो वा आहटं पि पटिक्कमनं आहटं पि गण्हाति, पत्तद्वारे पि पत्तं विस्सजेति, न पन भिक्खं आगमयमानो निसीदति। एवं सो उकट्ठपिण्डपातिकस्स अनुलोमेति । मुदुको तं दिवसं निसीदित्वा आगमेति।
२५. इमेसं पन तिण्णं पिलोलुप्पचारे उप्पन्नसत्ते धुतङ्गं भिज्जति। अयमेत्थ भेदो।
२६. अयं पनानिसंसो-कुलेसु निच्चनवकता, चन्दूपमता, कुलमच्छेरप्पहानं, समानुकम्पिता, कुलूपकादीनवाभावो, अव्हानानभिनन्दना, अभिहारेन अनत्थिकता, अप्पिच्छतादीनं अनुलोमवुत्तिता ति।।
चन्दूपमो निच्चनवो कुलेसु अमच्छरी सब्बसमानुकम्पो। कुलूपकादीनवविप्पमुत्तो होतीध भिक्खु सपदानचारो॥ लोलुप्पचारं च पहाय तस्मा ओक्खित्तचक्खु युगमत्तदस्सी। आकङ्खमानो भुवि सेरिचारं चरेय्य धीरो सपदानचारं ॥ ति॥
इयं सपदानचारिकङ्गे समादानविधानप्पभेदभेदानिसंसवण्णना॥
५. एकासनिकङकथा २७. एकासनिकङ्गं पि "नानासनभोजनं पटिक्खिपामि", "एकासनिकङ्गं समादियामी" ति इमेसं अज्ञतरवचनेन समादिन्नं होति।
२८. तेन पन एकासनिकेन आसनसालायं निसीदन्तेन थेरासने अनिसीदित्वा 'इदं महं पापुणिस्सती' ति पटिरूपं आसनं सल्लक्खेत्वा निसीदितब्बं । सचस्स विप्पकते भोजने मध्यम व्रती सामने या पीछे से और आसन-शाला में लायी गयी (भिक्षा) भी ग्रहण करता है, प्राप्त द्वार पर पात्र भी दे देता है, किन्तु भिक्षा की प्रतीक्षा में बैठा नहीं रहता । इस प्रकार वह उत्कृष्ट पिण्डपातिक के समान ही होता है। ३. परन्तु निम्न व्रती उस दिन बैठकर प्रतीक्षा करता है।
२५. इन तीनों का भी धुताङ्ग, लोलुपता के उत्पन्न होते ही, भङ्ग हो जाता है। यह भेद है। .. २६. इस धुताङ्ग का माहात्म्य यह है-कुलों में नित्य नया बना रहना, चन्द्रमा के समान होना, कुल-मात्सर्य (परिवार के प्रति मोह) का प्रहाण, सब पर मान अनुकम्पा रखना, कुलोपग के दोषों से रहित होना, बुलाये जाने का अभिनन्दन न करना, 'कोई भिक्षा लाकर दे'-ऐसी इच्छा न करना, अल्पेच्छता आदि के समनुरूप होना।
सापदानचारी भिक्षु चन्द्रमा के समान कुलों के लिये नित्य नया दिखायी देने वाला, मात्सर्य न करने वाला, सब पर समान अनुकम्पा रखने वाला एवं कुलोपग आदि के दोषों से मुक्त होता है।।
इसलिये लोलुपता को छोड़, आँखे नीची किये हुए, चार हाथ की दूरी तक ही देखने वाला, धीर भिक्षु पृथ्वी पर यथारुचि विचरण करने की इच्छा करता हुआ सापदानचारी बने ।। यह सापदानचारिका के विषय में ग्रहण, विधान, प्रभेद, भेद और माहात्य का वर्णन है ।।
५.ऐकासनिकाल २७. पञ्चम ऐकासनिकाल व्रत भी- १."अनेक आसनों पर भोजन का त्याग करता हूँ", २. "ऐकासनिकाङ्ग का ग्रहण करता हूँ". -इनमें से किसी एक देशना-वचन से ग्रहण किया जाता
है।
२८. ऐकासनिकाङ्गव्रती भिक्षु को आसनशाला में बैठते समय स्थविर के आसन पर न बैठकर "यह मेरे लिये उपयुक्त है"- ऐसा विचारते हुए उपयुक्त आसन देखकर बैठना चाहिये। यदि