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________________ २. धुत्तङ्गनिद्देस देवापि पिहयन्ति तादिनो नो चे लाभसिलोकनिस्सितो"॥ ति॥ (खु० नि० १-९८) अयं पिण्डपातिकङ्गे समादानविधानप्पभेदभेदानिसंसवण्णना॥ ४. सपदानचारिकङ्गकथा २२. सपदानचारिकङ्गं पि "लोलुप्पचारं पटिक्खिपामि", "सपदानचारिकङ्गं समादियामि" ति इमेसं अञतरवचनेन समादिन्नं होति। २३. तेन पन सपदानचरिके गामद्वारे ठत्वा परिस्सयाभावो सल्लक्खेतब्बो। यस्सा घरद्वारे वा रच्छाय वा गामे वा किञ्चि न लभति, अगामसजंकत्वा गन्तब्बं । यत्थ किञ्चि लभति, तं पहाय गन्तुं न वट्टति। इमिना च भिक्खुना कालतरं पविसितब्बं, एवं हि अफासुकट्ठानं पहाय अञत्थ गन्तुं सक्खिस्सति।सचे पनस्स विहारे दानं देन्ता, अन्तरामग्गे वा आगच्छन्ता मनुस्सा पत्तं गहेत्वा पिण्डपातं देन्ति, वट्टति। इमिना च मग्गं गच्छन्तेनापि भिक्खाचारवेलायं सम्पत्तगामं अनतिकमित्वा चरितब्बमेव। तत्थ अलभित्वा वा थोकं लभित्वा वा गामपटिपाटिया चरितब्बं इदमस्स विधानं। २४. पभेदतो पन अयं पि तिविधो होति। तत्थ उबद्धो पुरतो आहटभिक्खं पि पच्छतो आहटभिक्खं पि पटिकमनं आहरित्वा दिय्यमानं पि न गण्हाति, पत्तद्वारे पन पत्तं विस्सजेति। इमस्मि हि धुतने महाकस्सपत्थेरेन सदिसो नाम नत्थि। तस्स पि भिक्षु के आचरण से देवता भी स्पृहा (ईर्ष्या) करते हैं, यदि वह अपने लाभ और प्रशंसा की ओर झुकने वाला न हो।।" यह पिण्डपातिकाज के विषय में ग्रहण, विधान, प्रभेद, भेद एवं माहात्म्य का वर्णन है।। ४. सापदानचारिका २२. चतुर्थ सापदानचारिकाङ्ग भी १. "लोलुप स्वभाव को त्यागता हूँ", या २. "सापदानचारिकाङ्ग का ग्रहण करता हूँ"-इनमें से किसी एक देशना-वचन द्वारा ग्रहण किया जाता २३. उस सापदानचारिक को ग्राम के द्वार पर खड़े होकर विघ्न-बाधा (=परिश्रय; उद्धत साँड कुत्ते आदि या वेश्या शराबी आदि के उपद्रव) के न होने का विचार कर लेना चाहिये। जिस गली या गाँव में विघ्न-बाधा होती है, उसे छोड़कर अन्यत्र चारिका करना उचित है। जिस घर, गली या ग्राम में कुछ भी नहीं मिलता, उसे ग्राम न मानते हुए आगे बढ़ जाना चाहिये। हाँ, जहाँ कुछ मिलता हो, उसे छोड़कर (आगे) जाना उचित नहीं है। भिक्षु को समय रहते ही ग्राम में प्रवेश करना चाहिये। यों, वह असुविधाजनक स्थान छोड़कर दूसरी जगह भी जा सकेगा। यदि इस (भिक्षु) को विहार में दान देते हुए, या बीच रास्ते में आते हुए मनुष्य इसका पात्र लेकर पिण्डपात दे देते हैं, तो वह विहित है। इसे मार्ग में जाते हुए भी, भिक्षाटन के समय जो ग्राम मार्ग में पड़ जाय उसका अतिक्रमण न करते हुए चारिका करनी चाहिये । वहाँ कुछ भी न पाकर या अल्प सा पाकर ग्राम-परिपाटी (=ग्रामों में अन्तर डाले विना भिक्षाटन की परिपाटी) के अनुसार चारिका करनी चाहिये। यह इसका विधान है। २४. प्रभेद से यह भी त्रिविध होता है। इनमें १. उत्कृष्ट व्रती सामने से आयी या पीछे से आयी या आसनशाला में लाकर दी गयी भिक्षा भी नहीं ग्रहण करता, किन्तु प्राप्त द्वार पर भिक्षा के लिये पात्र देता है। इस धुताङ्ग के पालकों में महाकाश्यप स्थविर के समान दूसरा कोई नहीं हुआ। २.
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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