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विशुद्धिमग्ग
भिक्खा अधिवासिता' ति । एवं ते उभो परिहीना । इतरो पातो व पिण्डाय चरित्वा गन्त्वा धम्मरसं पटिसंवेदेसि ।
२०. इमेसं पन तिण्णं पि सङ्घभत्तादिअतिरेकलाभं सादितक्खणे व धुतङ्गं भिज्जति । अयमेत्थ भेदो ।
२१. अयं पनानिसंसो - " पिण्डियालोपभोजनं निस्साय पब्बज्जा" (वि०३-५५ ) ति वचनतो निस्सयानुरूपपटिपत्तिसब्भावो, दुतिये अरियवंसे पतिट्ठानं, अपरायत्तवृत्तिता, "अप्पानि चेव सुलभानि च तानि च अनवज्जानी" (अं० २ २९ ) ति भगवता संवण्णितपच्चयता, कोसज्जनिम्मद्दनता, परिसुद्धाजीवता, सेखियपटिपत्तिपूरणं, अपरपोसिता, परानुग्गहकिरिया, मानप्पहानं, रसतण्हानिवारणं, गणभोजन- परम्परभोजन- चारितसिक्खापदेहि अनापत्तिता, अप्पिच्छतादीनं अनुलोमवृत्तिता, सम्मापटिपत्तिब्रूहनं, पच्छिमजनतानुकम्पनं ति ।
अपरायत्तजीविको । यति ॥
पिण्डियालोपसन्तुट्ठो पहीनाहारलोलुप्पो होति चातुद्दिसो विनोदयति कोसज्जं आजीवस्स विसुज्झति । तस्मा हि नातिमञ्ञेय्य भिक्खाचरियाय सुमेधसो ॥ एवरूपस्स हि
अत्तभरस्स अनञ्ञपोसिनो ।
" पिण्डपातिकस्स भिक्खुनो स्वीकार की है।" इस प्रकार वे दोनों धर्मश्रवण से वञ्चित रह गये। परन्तु दूसरे (= उत्कृष्ट) ने कुछ प्रातः ही भिक्षाटन के लिये जाकर (बाद में) धर्मरस का आस्वादन किया ।
२०. इन तीनों का ही धुताङ्ग सङ्घ- भोजन आदि अतिरिक्त लाभ का ग्रहण करते ही भङ्ग हो जाता है। ये भेद है।
२१. इस धुताङ्ग का माहात्म्य यह है- " पिण्ड पिण्ड करके मिले हुए ग्रास के भोजन पर प्रव्रज्या आधृत है” इस देशना - वचन के अनुसार माहात्म्य इस प्रकार है- निश्रय के अनुरूप प्रतिपत्ति का होना, दूसरे आर्यवंश (पिण्डपात्र में सन्तोष) में प्रतिष्ठित होना, दूसरे के प्रति निर्भरता का अभाव, "वे अल्प तो हैं, परन्तु सुलभ भी हैं एवं निर्दोष भी " - इस प्रकार भगवान् द्वारा प्रशंसित होने के कारण, आलस्य का नाश, परिशुद्ध आजीविका का होना, शैक्ष्य प्रतिपत्ति की पूर्ति, किसी दूसरे के पालन-पोषण का उत्तरदायित्व वहन न करना, दूसरों पर अनुग्रह करना, मान का नाश, रस-तृष्णा (वासना) का निवारण, गण-भोजन, परम्परा-भोजन, चारित्र (विषयक) शिक्षापदों के उल्लंघन से होने वाली आपत्ति का न होना, अल्पेच्छता आदि के समनुरूप होना, सम्यक् प्रतिपत्ति की वृद्धि, आगामी परम्परा ( पीढ़ी) पर अनुकम्पा ।
पिण्ड पिण्ड ग्रास से सन्तुष्ट, स्वतन्त्र जीविका वाला, आहारविषयक लोलुपता (लोभ) से रहित यति (भिक्षु) चारों दिशाओं में निर्भय (बेखटक) होकर जाने वाला होता है।
(भिक्षाटन) आलस्य को दूर करता है, आजीविका की परिशुद्धि करता है। इसलिये मेधावी मिक्षाटन की अवहेलना कभी न करे ।।
इस प्रकार के
"दूसरे का भरण-पोषण न करने वाले, मन, वचन, कर्म तीनों में समानक्रिय पिण्डपातिक