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________________ २. धुत्तङ्गनिद्देस ९३ - १८. तेन पन पिण्डपातिकेन सङ्घभत्तं, उद्देसभेत्तं, निमन्तनभत्तं, सलाकभत्तं, पक्खिकं, उपोसथिकं, पाटिपदिकं, आगन्तुकभत्तं, गमिकभत्तं, गिलानभत्तं, गिलानुपट्ठाकभत्तं, विहारभत्तं, धुरभत्तं, वारभत्तं ति एतानि चुद्दस भत्तानि न सादितब्बानि।सचे पन "सङ्घभत्तं गण्हथा" ति आदिना नयेन अवत्वा "अम्हाकं गेहे सङ्घो भिक्खं गण्हाति, तुम्हे पि भिक्खं गण्हथा" ति वत्वा दिन्नानि होन्ति, तानि सादितुं वट्टन्ति। सङ्घतो निरामिससलाका पि विहारे पकभत्तं पि वट्टति येवा ति। इदमस्स विधानं। १९. पभेदतो पन अयं पि तिविधो होति। तत्थ उक्छो पुरतो पि पच्छतो पि आहटभिक्खं गण्हति, बहिद्वारे ठत्वा पत्तंगण्हन्तानं पि देति, पटिक्कमनं आहरित्वा दिन्नभिक्खं पि गण्हाति, तं दिवसं पन निसीदित्वा भिक्खं न गण्हाति। मज्झिमो तं दिवसं निसीदित्वा पि गण्हाति, स्वातनाय पन नाधिवासेति। मुटुको स्वातनाय पि पुनदिवसाय पि भिक्खं अधिवासेति। ते उभो पि सेरिविहारसुखं न लभन्ति, उक्कट्ठो व लभति। एकस्मि किर गामे अरियवंसो होति, उक्कट्ठो इतरे आह-"आयामावुसो, धम्मसवनाया" ति। तेसु एको 'एकेनम्हि, भन्ते, मनुस्सेन निसीदापितो' ति आह । अपरो 'मया, भन्ते, स्वातनाय एकस्स ३. पिण्डपातिकाज़ १७. तृतीय पिण्डपातिकाङ्ग भी १. "अतिरिक्त लाभ को त्यागता हूँ".या २."पिण्डपातिकाङ्ग का ग्रहण करता हूँ"-इनमें से किसी एक देशनावचन द्वारा ग्रहण किया जाता है। १८. उस पिण्डपातिक को १. सङ्घ-भोजन (समष्टि भण्डारा), २. कुछ भिक्षुओं के उद्देश्य से दिया गया भोजन, ३. निमन्त्रण-भोजन (=निमन्त्रित कर दिया गया भोजन), ४. शलाका-भोजन (निश्चित सङ्ख्या में शलाकाएँ सङ्घ में भेजकर उतने ही भिक्षुओं को निमन्त्रित करके दिया गया भोजन), ५. पाक्षिक (पखवारे का) भोजन, ६. उपोसथ का भोजन, ७. प्रतिपदा का भोजन, ८. आगन्तुक भोजन (=आगन्तुकों के लिये दिया गया भोजन), ९. पथिकों के लिये, १०.रोगी के लिये, ११. रोगी के परिचारक के लिये, १२. विहार में, १३. किसी प्रधान घर में, १४. ग्रामवासियों के द्वारा वार ( रवि, सोम आदि विशेष वार) के अनुसार दिया जाने वाला भोजन-यह चौदह (१४) प्रकार का भोजन नहीं ग्रहण करना चाहिये। किन्तु यदि "सद्ध-भोजन ग्रहण कीजिये" आदि प्रकार से न कहकर "मेरे घर सङ्घ भोजन ग्रहण करता है, आप भी भिक्षा ग्रहण करें"-आदि प्रकार से कह कर दिया . गया हो तो उन (भोजनों) को ग्रहण करना विहित है। सङ्घ द्वारा निरामिष शलाका (औषध आदि के लिये दी गयी शलाका) एवं विहार में पकाया गया भात भी विहित है। वह इसका विधान है। १९. प्रमेद की दृष्टि से यह भी तीन प्रकार का होता है। इनमें, १. उत्तम व्रती सामने से या पीछे से भी लाई गयी भिक्षा को ग्रहण करता है, दरवाजे के बाहर खड़े रहकर पात्र ग्रहण करने वाले को भी भिक्षा के लिये पात्र देता है, आसनशाला में लाकर दी गयी भिक्षा भी ग्रहण करता है; किन्तु उस दिन प्रतीक्षा में बैठे रहकर भिक्षा नहीं ग्रहण करता। और २. मध्यम व्रती उस दिन बैठकर भी ग्रहण करता है, किन्तु अगे दिन के लिये नहीं स्वीकार करता।३.निन (मृदुक) व्रती अगले दिन के लिये एवं उससे भी एक दिन आगे के लिये भिक्षा स्वीकार करता है। इन दोनों को ही स्वच्छन्द विहार का सुख नहीं मिल पाता, उत्कृष्ट व्रती ही उसे प्राप्त करता है। ___ एक ग्राम में 'आर्यवंश' ( इस सूत्र का उपदेश) हो रहा था। उत्कृष्ट ने दूसरों से कहा"आओ, आयुष्मानो! धर्मश्रवण करने के लिये चलें"। उनमें से एक ने कहा-"भन्ते, एक व्यक्ति के द्वारा मै भिक्षा के लिये बैठाया गया हूँ।" दूसरे ने कहा-मैंने कल के लिये एक व्यक्ति की भिक्षा
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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