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विसुद्धिमंग्ग
धुतङ्गतेचीवरिकस्स पन चतुत्थं वत्तमानं अंसकासावमेव वट्टति । तं च खो वित्थारतो विदत्थि, दीघतो तिहत्थमेव वट्टति ।
१५. इमेसं पन तिण्णं पि चतुत्थकचीवरं सादितक्खणे येव धुतङ्गं भिज्जति । अयमेत्थ
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भेदो ।
१६. अयं पनानिसंसो—-तेचीवरिको भिक्खु सन्तुट्ठों होति कायपरिहारिकेन चीवरेन, तेनस्स पक्खिनो विय समादायेव गमनं, अप्पसमारम्भता, वत्थसन्निधिपरिवज्जनं, सल्लहुकवुत्तिता, अतिरेकचीवरलोलुप्पप्पहानं कप्पिये मत्तकारिताय सल्लेखवुत्तिता, अप्पिच्छतादीनं फलनिष्पत्ती ति एवमादयो गुणा सम्पज्जन्ती ति ।
अतिरेकवत्थतण्हं पहाय सन्निधिविवज्जितो धीरो । सन्तोससुखरस तिचीवरधरो भवति योगी ॥ तस्मा सपत्तचरणो पक्खी व सचीवरो व योगिवरो । सुखमनुविचरितुकामो चीवरनियमे रतिं कयिरा ॥ ति ॥
अर्य तेचीवरिकङ्गे समादानविधानप्यभेदभेदानिसंसवण्णना ॥ ३. पिण्डपातिकङ्गकथा
१७. पिण्डपातिकङ्गं पि " अतिरेकलाभं पटिक्खिपामि", "पिण्डपातिकङ्गं समादियामी" ति इमेसं अञ्ञतरवचनेन समादिन्नं होति ।
स्थान में (एक) रङ्गने का काषाय (= वस्त्रों को रङ्गते समय पहनने के लिये रखा गया काषाय) होता है, उसे पहन या ओढ़कर रङ्गाई का कार्य किया जा सकता है ३. निम्न के लिये विधान है कि वह सब्रह्मचारी भिक्षुओं का चीवर पहन या ओढ़कर रंगाई का काम कर सकता है। वहाँ विस्तर पर पड़ा हुआ चादर भी उसके लिये विहित है, किन्तु उसे लेकर चल देना विहित नहीं है। साथी भिक्षुओं का चीवर भी समय का अन्तर रखते हुए प्रयुक्त करना चाहिये ।
धुताङ्गधारी भिक्षु के लिये चौथे वस्त्र के रूप में केवल कन्धे पर धारण किया जाने वाला काषाय ही विहित है। उसे भी चौड़ाई में एक बालिश्त (विदत्थि) और लम्बाई में तीन हाथ का (मफलर की तरह) होना चाहिये ।
१५ . इन तीनों का धुताङ्ग भी चौथे चीवर को धारण करते ही भङ्ग हो जाता है। यह भेद है। १६. इस त्रैचीवरिकाङ्ग का माहात्म्य यह है - त्रैचीवरिक भिक्षु शरीर की शीत आदि से रक्षा करने वाले चीवर मात्र से सन्तुष्ट होता है, इसलिये इस धुताङ्ग के पालन से उसमें अपने पतों के साथ पक्षी की तरह चीवर को साथ लेकर जाना, कम वस्तुओं को रखने वाला होना, अधिक वस्त्रों के साथ रखने की प्रवृत्ति का त्याग, भार-रहितता, अतिरिक्त चीवर के प्रति लोलुपता (राग या लोभ) का न होना, विहित में (भी) मात्रा का ध्यान रखने से उपेक्षावृत्ति, अल्पेच्छता आदि गुणों की प्राप्ति - आदि गुण पूर्णता प्राप्त करते हैं।
तीन चीवर धारण करने वाला योगी अतिरिक्त वस्त्र की तृष्णा (वासना) को त्यागकर, संग्रह से रहित हो, सन्तोष-सुख के रस को जानने वाला होता है ।।
इसलिये अपने पङ्खों के साथ विचरण करने वाले पक्षी के समान शरीर पर पहने-ओढ़े चीवर ही साथ सुखपूर्वक विचरण करने का इच्छुक वह योगी चीवर के नियमपालन के आग्रह में आनन्द का अनुभव करे ।।
यह त्रैचीवरिकाम (के विषय) में ग्रहण, विधान, प्रभेद, भेद एवं माहात्म्य का वर्णन है।