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________________ २. धुत्तङ्गनिस तस्मा हि अत्तनो भिक्खु पटि समनुस्सरं । योगाचारानुकूलम्हि पंसुकूले रतो सिया ॥ ति ॥ ९१ अयं ताव पंसुकूलिङ्गे समादानविधानप्यभेदभेदानिसंसवण्णना ॥ २. तेचीवरिकङ्गकथा १२. तदनन्तरं पन तेचीवरिकङ्गं" चतुत्थकचीवरं पटिक्खिपामि ", " तेचीवरिकङ्गं समादियामी" ति इमेसं अञ्ञतरवचनेन समादिन्नं होति । १३. तेन पन तेचीवरिकेन चीवरदुस्सं लभित्वा याव अफासुकभावेन कातुं वा न सक्कोति, विचारकं वा न लभति, सूचिआदीसु वास्स किञ्चि न सम्पज्जति, ताव निक्खिपितब्बं । निक्खित्तपच्चया दोसो नत्थि । रजितकालतो पन पट्ठाय निक्खिपितुं न वट्टति, धुतङ्गचोरो नाम होति । इदमस्स विधानं । 1 १४. पभेदतो पन अयं पि तिविधो होति । तत्थ उक्कट्ठेन रजनकाले पठमं अन्तरवासकं वा उत्तरासङ्गं वा रजित्वा तं निवासेत्वा इतरं रजितब्बं । तं पारुपित्वा सङ्घाटि रजितब्बा । सङ्घाटिं पन निवासेतुं न वट्टति । इदमस्स गामन्तसेनासनं वत्तं । आरञ्ञके पन द्वे एकतो वित्वा रजितुं वट्टति । यथा पन किञ्चि दिस्वा सक्कोति कासावं आकड्डित्वा उपरि कातुं, एवं आसने ठाने निसीदितब्बं । मज्झिमस्स पन रजनसालायं रजनकासावं नाम होति, तं निवासेत्वा वा पारुपित्वा वा रजनकम्मं कातुं वट्टति । मुदुकस्स सभागभिक्खूनं चीवरानि निवासेत्वा वा पारुपित्वा वा रजनकम्मं कातुं वट्टति । तत्रट्ठकपच्चत्थरणं पि तस्स वट्टति, परिहरितुं पन न वट्टति । सभागभिक्खूनं चीवरम्पि अन्तरन्तरा परिभुञ्जितुं वट्टति । इसलिये भिक्षु अपनी उपसम्पदा के समय 'हाँ, भन्ते!' कहकर की गयी प्रतिज्ञा का स्मरण करते हुए योगियों के आचार के अनुकूल पांशुकूल में रत रहे ।। इस प्रकार यह पांशुकूलिक के विषय में ग्रहण, विधान, प्रभेद, भेद एवं माहात्म्य का वर्णन समाप्त हुआ ।। २. त्रैचीवरिकाङ्ग १२. तत्पश्चात् द्वितीय त्रैचीवरिकाङ्ग (नामक धुताङ्ग) 'चतुर्थ चीवर का परित्याग करता हूँ' या २ ' त्रैचीवरिकाङ्ग ग्रहण करता हूँ"- इनमें से किसी एक वचन के द्वारा ग्रहण किया जाता है। १३. वह त्रैचीवरिक भिक्षु यदि चीवर के लिये कपड़ा पा जाय तो उसे तब तक रख सकता है, जब तक कि अस्वस्थता के कारण चीवर बनाने में असमर्थ हो, विचारक (सहायक भिक्षु या श्रामणेर) न मिले, या चीवर बनाने के साधन सुई आदि में से कुछ न मिले। इस प्रकार कपड़े को कुछ समय रख छोड़ने में भी दोष नहीं है। किन्तु कपड़ा रङ्ग जाने के बाद नहीं रखा जा सकता । रखने वाला 'धुताङ्गचौर' कहा जाता है। यह इसका विधान है। १४ प्रभेद से यह भी तीन प्रकार का होता है। १ (क) उनमें जो उत्कृष्ट है उसे रँगते समय पहले अन्तर्वासक को या उत्तरासङ्ग को रंग कर, उसे पहन कर फिर दूसरे को रंगना चाहिये । उसे ओढकर सङ्घाटी रगनी चाहिये। किन्तु सङ्घाटी को पहनना नही चाहिये। यह ग्राम के पास वाले शयनासन के लिये कहा गया है। (ख) (शयनासन) में दो को एक साथ धोकर रङ्गा जा सकता है। किन्तु (ऐसी स्थिति मे) उसे (वस्त्रो के समीप ही बैठना चाहिये, ताकि यदि कोई दिखायी पड़ जाय तो काषाय को खीचकर अपने ऊपर डाला जा सके। २ मध्यम के लिये (विधान है कि) रङ्गने के
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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