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________________ विसुद्धिमग्ग ९. अयं पन पभेदो-तयो पंसुकीलिका, उक्कट्ठो मज्झिमो मुदू ति। तत्थ सोसानिकं येव गण्हन्तो उक्ट्ठो होति। 'पब्बजिता गण्हिस्सन्ती' ति ठपितकं गण्हन्तो मज्झिमो। पादमूले ठपेत्वा दिन्नकं गण्हन्तो मुदू ति। १०. तेसु यस्स कस्सचि अत्तनो रुचिया गिहिदिन्नकं सादितक्खणे धुतङ्गं भिज्जति। अयमेत्थ भेदो। ११. अयं पनानिसंसो-"पंसुकूलचीवरं निस्साय पब्बज्जा" (वि० ३-१००) ति वचनतो निस्सयानुरूपपटिपत्तिसब्भावो, पठमे अरियवंसे पतिट्ठानं, आरक्खदुक्खाभावो, अपरायत्तवृत्तिता, चोरभयेन अभयता, परिभोगतण्हाय अभावो, समणसारुप्पपरिक्खारता, "अप्पानि चेव सुलभानि च तानि च अनवजानी" (अं० नि० २-२९) ति भगवता संवण्णित-पच्चयता, पासादिकता, अप्पिच्छतादीनं फलनिप्फत्ति, सम्मापटिपत्तिया अनुब्रूहनं, पच्छिमाय जनताय दिट्ठानुगतिआपादनं ति। मारसेनाविघाताय पंसुकूलधरो यति। सन्नद्धकवचो युद्धे खत्तियो विय सोभति॥ पहाय कासिकादीनि वरवत्थानि धारितं। . यं लोकगरुना, को तं पंसुकूलं न धारये ॥ जो भिक्षु के चरणों पर भी दिया गया है और उसके द्वारा उसी प्रकार दिया भी गया है वह दोनों ओर से शुद्ध है। जो हाथ पर रख कर दिया गया है और फिर हाथ पर ही रखा गया है, वह निम्न कोटि का (अनुत्कृष्ट) चीवर है। इस प्रकार पाशुकूलिक को पांशुकूल चीवर का यह भेद जानकर चीवर का परिभोग करना चाहिये-यही विधान है। (२) ९. प्रभेद- इस पाशुकूलिक के तीन प्रकार (प्रभेद) होते हैं-उत्कृष्ट. मध्यम एवं निम्न (-मृदु)। उनमें केवल श्माशानिक (वस्त्र) को ही ग्रहण करने वाला उत्कृष्ट होता है। प्रव्रजित (भिक्षु) ले लेगे'इस प्रकार सोचकर इस रखे गये को ग्रहण करने वाला मध्यम होता है। चरण पर रखकर दिये गये को ग्रहण करने वाला निम्न (मृदु) होता है। (३) १० भेद- गृहस्थ द्वारा दिये गये इनमें से किसी भी चीवर को अपनी रुचि से ग्रहण करने के क्षण में ही धुताङ्ग खण्डित हो जाता है। यही धुताङ्ग का भेद (=भङ्ग, नाश) कहलाता है। ११ माहात्म्य यह है- “पांशुकूल चीवर के आधार पर प्रवज्या है" इस देशना-वचन के अनुसार पाशुकूल का माहात्म्य इस प्रकार है- नि श्रय (१ भिक्षाटन, २ पाशुकूल चीवर, ३ वृक्षमूल के नीचे शयन एव ४ रुग्णावस्था में गोमूत्रदिग्ध हरे) के अनुरूप प्रतिपत्ति का होना प्रथम आर्यवश में (चीवर से सन्तोष का) प्रतिष्ठान, (अधिक वस्त्र होने पर उनकी) रक्षा करने के दुख का अभाव, परिभोग-तृष्णा (अधिक होने पर 'किस किस को पहनूँ'-इस तृष्णा) का अभाव, श्रमण के अनुरूप परिष्कार (पहनावा) होना, "वे वस्त्र अल्प है किन्तु सुलभ और निर्दोष है"-इस प्रकार भगवान् द्वारा प्रशसित होने के कारण प्रसन्नता, अल्पेच्छता (लोभराहित्य) आदि गुणों की पूर्णता, सम्यक प्रतिपत्ति (ज्ञान) की वृद्धि, आगामी परम्परा (पीढी) के लिये आदर्श होना। .. आचार्य अब तीन गाथाओ के माध्यम से इन्ही धुताङ्गो का माहात्म्य (आनृशस्य) बता रहे है मार की सेना के नाश के लिये पाशुकूलधारी यति (भिक्षु) युद्ध मे कवच धारण किये हुए, सन्नद्ध योद्धा के समान शोभित होता है।। काशी के बने मूल्यवान् वस्त्र आदि को त्याग कर (स्वय) लोकगुरु (भगवान् बुद्ध) ने जिसे धारण किया, उस पाशकूल को भला कौन धारण नहीं करेगा।||
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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