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________________ २. धुत्तङ्गनिद्देस ८९ मनुस्सा छड्डेन्ति। धजाहटं ति। नावं आरोहन्ता धजं बन्धित्वा ठपितं, तं द्विनं पि सेनानं गतकाले गहेतुं वट्टति। थूपचीवरं ति।वम्मिकं परिक्खिपित्वा बलिकम्मं कतं।समणचीवरं ति। भिक्खुसन्तकं । आभिसेकिकं ति। रो अभिसेकट्ठाने छडितचीवरं । इद्धिमयं ति। एहिभिक्खुचीवरं । पन्थिकं ति। अन्तरामग्गे पतितकं। यं पन सामिकानं सतिसम्मोसेन पतितं, तं थोकं रक्खित्वा गहेतब्बं । वाताहटं ति। वातेन पहरित्वा दूरे पातितं। तं पन सामिके अपस्सन्तेन गहेतुं वट्टति। देवदत्तियं ति।यं अनुरुद्धत्थेरस्स विय देवताहि दिनकं। सामुद्दियं ति। समुद्दवीचीहि थले उस्सारितं। ८. यं पन 'सङ्घस्स देमा' ति दिन्नं चोळकभिक्खाय वा चरमानेहि लद्धं, न तं पंसुकूलं। भिक्खुदत्तिये पि यं वस्सग्गेन गाहेत्वा वा दीयति, सेनासनचीवरं वा होति, न तं पंसुकूलं । नो गाहापेत्वा दिनमेव पंसुकूलं । तत्रापि यं दायकेहि भिक्षुस्स पादमूले निक्खित्तं, तेन पन भिक्खुना पंसुकूलिकस्स हत्थे ठपेत्वा दिनं, तं एकतोसुद्धिकं नाम। यं भिक्खुनो हत्थे ठपेत्वा दिन्नं, तेन पन पादमूले ठपितं, तं पि एकतोसुद्धिकं । यं भिक्खुनो पि पादमूले ठपितं, तेनापि तथेव दिनं, तं उभतोसुद्धिकं । यं हत्थे ठपेत्वा लद्धं, हत्थेयेव ठपितं, तं अनुष्कट्ठचीवरं नाम। इति इमं पंसुकूलभेदं जत्वा पंसुकूलिकेन चीवरं परिभुञ्जितब्बं ति इदमेत्थ विधानं। छोड़ देते हैं। ध्वजाहत-नाव पर सवार होने वाले ध्वज ( झंडा) बाँधकर सवार होते हैं, उसे उनके आँखों से ओझल हो जाने के बाद ग्रहण रहता है, उसे भी दोनों (पक्षों की) सेनाओं के चले जाने के बाद लिया जा सकता है। स्तूपचीवर-चैत्य को घेर कर बलिकर्म (हवन) के पास चढ़ाया हुआ। अमण-चीवर =भिक्षु से प्राप्त चीवर । आमिषेकिक-राजा के अभिषेक-स्थल पर छोड़ दिया गया वस्त्र ऋद्धिमय आओ भिक्षु'-चीवर'।पान्थिक-यात्रियों द्वारा यात्रा के बीच रास्ते में गिराया हुआ। किन्तु जो (उसके) स्वामी की असावधानी से गिर गया हो, उसे कुछ रुक कर लेना चाहिये। (यह सोचकर रुकना चाहिये कि सम्भवतः जिसका वस्त्र हो वह पुनः आकर ले जाय)। वाताहत-हवा के द्वारा उड़कर दूर जाकर गिरा हुआ। उसे भी (उसके) स्वामी के न दिखायी देने पर लिया जा सकता है। देवदत्त जो अनुरुद्ध स्थविर (को दिये गये) के समान, देवताओं द्वारा दिया गया हो। सामुद्रिकसमुद्र की लहरों द्वारा किनारे पर लगाया गया। (१) ८.विधान-किन्तु जो 'सह के लिये दे रहे हैं इस प्रकार (कहकर) दिया गया है. या जो वस्त्र मांगते हुए चारिका करने से मिला है, वह 'पांशुकूल' नहीं है। भिक्षु द्वारा दिये गये में से भी, जो वर्षावास के अन्त में भिक्षु के द्वारा गृहस्थ से लेकर पांशुकूलिक को दिया जाता है, या जो शयनासनचीवर (शयनासन-चौकी बनवाकर 'इस शयनासन का परिभोग करने वाले भिक्षु का शयनासन चीवर का भी उपभोग करें'-यह कहकर दिया गया चीवर) है, वह पांशुकूल नहीं है। ग्रहण न करके दिया गया चीवर ही पांशुकुल है। उसमें भी, जो दाता द्वारा भिक्षु के चरणों पर रख दिया गया है और फिर उसे भिक्षु द्वारा पाशुकूलिक के हाथ पर रख दिया गया है, वह एक ओर से शुद्ध है। जो (गृहस्थ द्वारा) भिक्षु के हाथ में रखकर दिया गया हो एवं उसके द्वारा पांशुकूलिक के चरणों पर रख दिया गया हो, वह भी एक ओर से शुद्ध है। १. कभी-कभी जब भगवान् किसी प्रव्रज्येच्छु को 'आओ भिक्षु' कहकर प्रव्रज्या के लिये आमन्त्रित करते थे, तब इस शिष्य के पूर्वकृत पुण्यों के प्रभाव से उसके शरीर पर वस्त्र ( काषाय वस्त्र) आ जाते थे। भगवान् के ऋद्धिबल से इसके प्रकट होने के कारण इसे 'ऋद्धिमय' कहा गया है। (द्र०-विनय०, महावग्ग, ख०१)।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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