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विसुद्धिमग्ग (ख) एवं समादिन्नधुतङ्गेन पन तेन सोसानिकं, पापणिकं, रथियचोळं, सङ्कारचोळं, सोत्थियं, न्हानचोळं, तित्थचोळं, गतपच्चागतं, अग्गिदडं, गोखायितं, उपचिकाखायितं, उन्दुरखायितं, अन्तच्छिनं, दसाच्छिन्नं, धजाहटं, थूपचीवरं, समणचीवरं, आभिसेकिकं, इद्धिमयं, पन्थिकं, वाताहटं, देवदत्तियं, सामुद्दियं ति एतेसु, अञ्जतरं चीवरं गहेत्वा फालेत्वा दुब्बलट्ठानं पहाय थिरट्ठानानि धोवित्वा चीवरं कत्वा पोराणं गहपतिचीवरं अपनेत्वा परिभुञ्जितब्बं। .
तत्थ सोसानिकं ति सुसाने पतितकं। पापणिकं ति। आपणद्वारे पतितकं । रथियचोळं ति। पुत्थिकेहि वातपानन्तरेन रथिकाय छड्डितं चोळकं । सङ्कारचोळं ति। सङ्कारहाने छडितचोळकं । सोत्थियं ति। गम्भमलं पुञ्छित्वा छडितवत्थं । तिस्सामच्चमाता किर सतग्घनकेन वत्थेन गब्भमलं पुञ्छापेत्वा "पंसुकूलिका गणिहस्सन्ती"ति तालवेळिमग्गे छड्डापेसि। भिक्खू जिण्णकट्ठानत्थमेव गण्हन्ति। न्हानचोळं ति। यं भूतवेजेहि ससीसं न्हापिता कालकण्णिचोळं ति छत्रुत्वा गच्छन्ति।तित्थचोळं ति।न्हानतित्थे छडितपिलोतिका। गतपच्चागतं ति। यं मनुस्सा सुसानं गत्वा पच्चागता न्हत्वा छड्डेन्ति। अग्गिदडं ति। अग्गिना दट्टप्पदेसं। तं हि मनुस्सा छड्डेन्ति। गोखायितादीनि पाकटानेव। तादिसानि पिहि
यह उपर्युक्त सभी धुताङ्गों का संक्षिप्त व्याख्यान (समास-कथा) है। अब आगे क्रमशः एकएक के ग्रहण, विधान, प्रभेद, भेद एवं माहात्म्य का वर्णन करेंगे।
१.पांशुकूलिका ७. समादान-(क) (इन धुताङ्गों में प्रथम) पांसुकूलिकाझ इन दो वचनों (प्रतिज्ञाओं) में से किसी एक (वचन) द्वारा ग्रहण किया जाता है- १. 'गृहपतियों द्वारा किये गये चीवर का परित्याग करता हूँ' या २. 'पांसुकूलिक व्रत धारण करता हूँ। यह वचन ग्रहण करना समादान है।
(ख) इस तरह जिसने धुताङ्ग ग्रहण किया है उसे श्माशानिक, आपणिक, रथिकचोल, सारचोल, स्वस्तिवस्त्र, सानवस्त्र, तीर्थवस्त्र, गतप्रत्यागत, अग्निदग्ध, गोखादित, उपचिकाखादित, उन्दुरकखादित, अन्तश्छिन्न, दशाछिन्न, ध्वजाहत, स्तूपचीवर, श्रमणचीवर, आभिषेकिक, ऋद्धिमय, पान्थिक, वाताहत, देवप्रदत्त, सामुद्रिक-इनमें से किसी भी एक वस्त्र को लेकर (इसका जीर्ण भाग) फाड़कर, पृथक कर और मजबूत (काम में आने योग्य) भाग को साफकर, चीवर बनाकर, पुराने गृहपति द्वारा प्रदत्त चीवर को उतार कर (इस चीवर का) परिभोग करना चाहिये।
(अब आचार्य इन उपर्युक्त शब्दों की पदशः व्याख्या कर रहे हैं-)
वहाँ श्माशानिक का अर्थ है-श्मशान में पड़ा हुआ। आपणिक-दूकान के सामने नीचे सड़क पर फेंका हुआ। रथिकचोल-पुण्यार्थियों द्वारा खिड़की के रास्ते (मार्ग) पर फेंका हुआ। सहारचोल-घूरे पर फेंका हुआ। स्वस्तिवस्त्र (प्रसव के पश्चात्) गर्भ-मल को पोंछकर फेंका हुआ। तिष्य अमात्य की माता ने सौ कार्षापण के मूल्य वाले वस्त्र (-मूल्यवान् वस्त्र) से गर्भ-मल को पोंछवा कर,"पांशुकूलिक भिक्षु ग्रहण कर लेंगे"(-इस उद्देश्य से) तालवेणि (=महाग्राम-लंका की राजधानी, एवं अनुराधपुर में एक मार्ग का नाम)-मार्ग पर फेंकवा दिया। भिक्षुओं ने (उसे चीवरों के) फटे स्थानों की मरम्मत करने के लिये ले लिया। खानवस्त्र =ओझाओं (=भूत-वैद्यों) के द्वारा स्रान करवाये गये लोग जिस वस्त्र को "यह अभागा वस्त्र है"- ऐसा सोच छोड़कर चले जाते है। तीर्थवस्त्र (घाट आदि) नहाने के स्थानों पर छोड़ दिये गये जीर्ण वस्त्र । गतप्रत्यागत जिसे लोग श्मशान से वापस आकर स्रान करने के बाद छोड़ देते हैं। अग्निदग्ध जिसके कछ भाग अग्नि से जल गये हों, उसे लोग