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________________ ८७ २. धुत्तङ्गनिद्देस पटिक्खिपति, तं वत्थू" ति। सब्बानेव च लोलुप्पविद्धंसनरसानि, निल्लोलुप्पभावपच्चुपट्टानानि, अप्पिच्छतादिअरियधम्मपदट्ठानानि । एवमेत्थ लक्खणादीहि वेदितब्बो विनिच्छयो॥ समासव्यासतो वण्णना ६. समादानविधानतो ति आदीसु पन पञ्चसु सब्बानेव धुतङ्गानि, धरमाने भगवति भगवतो व सन्तिके समादातब्बानि। परिनिब्बुते, महासावकस्स सन्तिके। तस्मि असति खीणासवस्स, अनागामिस्स, सकदागामिस्स, सोतापन्नस्स, तिपिटकस्स, द्विपिटकस्स, एकपिटकस्स, एकसङ्गीतिकस्स, अट्ठकथाचरियस्स। तस्मि असति धुतङ्गधरस्स, तस्मि पि असति चेतियङ्गणं सम्मजित्वा उकुटिकं निसीदित्वा सम्मासम्बुद्धस्स सन्तिके वदन्तेन विय समादातब्बानि। अपि च सयं पि समादातुं वट्टति एव। एत्थ च चेतियपब्बते द्वे भातिकत्थेरानं जेट्टकभातु धुतङ्गाप्पिच्छताय वत्थु कथेतब्बं । अयं ताव साधारणकथा॥ इदानि एकेकस्स समादान-विधान-प्पभेद-भेदानिसंसे वण्णयिस्साम १. पंसुकूलिकङ्गकथा ७.(क) पंसुकूलिकङ्गं ताव "गहपतिदानचीवरं पटिक्खिपामि", "पंसुकूलिङ्गं समादियामी" ति इमेसु द्वीसु वचनेसु अञ्जतरेन समादिन्नं होति । इदं तावेत्थ समादानं। इन सभी का रस-लोलुपता (लोभ, वासना) का नाश है। प्रत्युपस्थान- लोलुपता से रहित होना है। पदस्थान- अल्पेच्छता आदि आर्य (श्रेष्ठ धर्म) इनके पदस्थान हैं। यों. यहाँ लक्षणादि से विनिमय जानना चाहिये।। ६. समादानविधानतो- ऊपर गाथा में कहे 'ग्रहण करने का विधान' आदि (१. समादान, २. विधान, ३ प्रभेद, ४. भेद एवं ५. उस-उस का माहात्म्य) पाँचों में सभी धुताङ्ग भगवान् के जीवनकाल में, साक्षात् भगवान् से ही ग्रहण करने चाहिये। (उनके) परिनिर्वृत हो जाने पर महाश्रवक (भगवान् के प्रमुख शिष्य) से, उनके भी न होने पर, (क्रमशः) क्षीणास्रव, अनागामी, सकृदागामी, स्रोतआपन्न, त्रिपिटकघर, द्विपिटकधर, एकपिटकधर एकसङ्गीतिक (जिसे पाँच निकायो में से कोई एक निकाय कण्ठस्थ हो), अट्ठकथाचार्य (जिसे अट्ठकथा कण्ठस्थ हो) से ग्रहण करना चाहिये। उनके न होने पर धुताङ्गधारी से, उसके भी न होने पर किसी चैत्य का आँगन स्वच्छ कर, घुटनों के बल बैठकर, मानो भगवान् तथागत के सामने ही उपवेशन कर रहा हो, ग्रहण करना चाहिये। यों स्वयं भी ग्रहण किया जा सकता है। यहाँ चैत्यपर्वतवासी दो स्थविर-भ्राताओं में ज्येष्ठ स्थविर भ्राता की अल्पेच्छता-कथा' कहनी चाहिये। १. एक स्थविर नैषधिकव्रतधारी थे, किन्तु यह बात कोई नहीं जानता था। एक दिन वे रात्रि में शयनहेतु बिछी चौकी पर बैठे हुए थे। तभी बिजली की चमक के सहारे उन्हें देखकर दूसरे भिक्षु ने पूछा-"क्या, भन्ते! आप नैषद्यिक हैं?" स्थविर ने धुतान के प्रति अल्पेच्छता के कारण उसी क्षण लेटकर, कुछ समय बाद, पुन धुताङ्ग धारण किया। टीका। (इस कथा का तात्पर्य यह है कि धुतान को, जहाँ तक बने पडे. साधक द्वारा गोपनीय रखना चाहिये। इनका पालन करते हुए भी, इनका व्यर्थ जन-प्रचार न होने दे।-अनु०)
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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