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विसुद्धिमग्ग रुक्खमूले निवासो रुक्खमूलं, तं सीलमस्सा ति रुक्खमूलिको। रुक्खमूलिकस्स अङ्गं रुक्खमूलिकडं।,(९) __ अब्भोकासिक-सोसानिकङ्गेसु पि एसेव नयो। (१०-११)।
यदेव सन्थतं यथासन्थतं, 'इदं तुम्हं पापुणाती' ति एवं पठमं उद्दिट्ठसेनासनस्सेतं अधिवचनं । तस्मि यथासन्थते विहरितुं सीलमस्सा ति यथासन्थतिको। तस्स अङ्गं यथासन्थतिकळं। (१२)
सयन पटिक्खिपित्वा निसज्जाय विहरितुं सीलमस्सा ति नेसज्जिको। तस्स अङ्गं नेसजिकळं। (१३)
४. सब्बानेव पनेतानि तेन तेन समादानेन धुतकिलेसत्ता धुतस्स भिक्खुनो अङ्गानि, किलेसधुननतो वा धुतं ति लद्धवोहारं आणं अङ्गमेतेसं ति धुतङ्गानि। अथ वा धुतानि च तानि पटिपक्खनिझुननतो अङ्गानि च पटिपत्तिया ति पि धुतङ्गानि।
एवं तावत्थ अस्थतो विज्ञातब्बो विनिच्छयो॥ ५. सब्बानेव पनेतानि समादानचेतनालक्खणानि । वुत्तं पि चेतं-"यो समादियति, सो पुग्गलो। येन समादियति, चित्तचेतसिका एते धम्मा। या समादानचेतना, तं धुतङ्गं । यं
वृक्षमूल मे निवास को ही संक्षेप में (उत्तरपदलोपी समास कर) वृक्षमूल' (रुक्खमूल) कहते है। वृक्षमूल जिसका शील हो वह 'वृक्षमूलिक' कहलाता है। और उस वृक्षमूलिक का अङ्ग हुआ वृक्षमूलिका (रुक्खमूलिकङ्ग)। (९)
आभ्यवकाशिका (अब्भोकासिकङ्ग) एवं श्माशानिकाङ्गशब्दों के व्याख्यान में भी यही विधि अपनायी जानी चाहिये । अर्थात् खुले आकाश के नीचे ही (कभी भी किसी वृक्षमूल के नीचे या गुहा व विहार आदि में) रहने वाले साधक के व्रत को आभ्यवकाशिकाज कहते है। (१०)
इसी तरह श्मशान (मुर्दा जलाने के स्थान) में ही रहने वाले साधक के व्रत को श्माशानिकाङ्ग (सोसानिकङ्ग) कहते है। (११)
जो भी पहली बार बिछा दिया गया हो या जैसा बिछा दिया गया हो, वह हुआ यथाश्रन्थत (यथासन्थत) । 'यह आप के लिये है'- इस प्रकार प्रथम उद्देश्य कर दिये गये शयनासन का यह यथासस्थित शब्द पर्याय है। उस यथासस्थित पर बैठना ही जिसका व्रत हो-वह याथासंस्थितिकाङ्ग कहलाता है (यथासन्थितिकङ्ग)। (१२)
शयन का परित्याग कर, बैठे ही बैठे सब क्रियाएँ करना जिसका व्रत हो वह कहलाता हैनैषधिक। उसका व्रत हुआ- नैषधिकाज (नेसज्जिकङ्ग)।। (१३)
४ ये सभी (उपर्युक्त) व्रत (क) इनको धारण करने के फलस्वरूप क्लेशो को नष्ट (धुत) कर देने वाले परिशुद्ध (धुत) भिक्षु के अङ्ग है-इसलिये. (ख) या क्लेशो को नष्ट कर देने के कारण 'धुत' कहा जाने वाला ज्ञान इनका अङ्ग है-इसलिये. (ग) अथवा वे धुत है, क्योकि वे विपक्ष (क्लेशादि प्रतिपक्ष) को धुन डालते है. एव (घ) वे अङ्ग है, क्योकि वे मार्ग है-इसलिये वे सभी धुताङ्ग कहलाते
यो, यहाँ उन सभी का अर्थों से विनिश्चय जानना चाहिये।। . ५ ग्रहण (समादान) करने की चेतना इन सभी का लक्षण है। (अट्ठकथा मे) यह कहा भी गया है- "जो ग्रहण करता है वह 'पुद्गल' है। जिससे ग्रहण करता है वे 'चित्तचैतसिक धर्म है। जो ग्रहण की गयी चेतना है वह 'धुताङ्ग है। जिसे त्यागता है वह 'वस्तु है।