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________________ २. धुत्त निस ८५ अपदानेन सपदानं, अवखण्डनरहितं, अनुषरं ति वृत्तं होति । सपदानं चरितुं इदमस्स सीलं ति सपदानचारी, सपदानचारी एव सपदानचारिको । तस्स अङ्गं सपदानचारिकङ्गं । (४) एकासने भोजनं एकासनं, तं सीलमस्सा ति एकासनिको । तस्स अङ्गं एकासनिकङ्गं । (५) दुतियभाजनस्स परिक्खित्तत्ता केवलं एकस्मि येव पत्ते पिण्डो पत्तपिण्डो । इदानि पत्तपिण्डगहणे पत्तपिण्डसञ्ञ कत्वा पत्तपिण्डो सीलमस्सा ति पत्तपिण्डको । तस्स अङ्गं पत्तपिण्डकङ्गं । (६) 'खलू' ति पटिसेधनत्थे निपातो । पवारितेन सता पच्छा लद्धं भत्तं पच्छाभत्तं नाम, तस्स पच्छाभत्तस्स भोजनं पच्छाभत्तभोजनं, तस्मि पच्छाभत्तभोजने पच्छाभत्तस कत्वा पच्छाभत्तं सीलमस्सा ति पच्छाभत्तिको। न पच्छाभत्तिको खलुपच्छभत्तिको । समादानवसेन पटिक्खित्तातिरित्तभोजनस्सेतं नामं । अट्ठकथायं पन वृत्तं - ' खलू' ति एको सकुणो, सो मुखेन फलं गहेत्वा तस्मि प - तिते पुन अञ्ञ न खादति, तादिसो अयं ति खलुपच्छाभत्तिको । तस्स अङ्गं खलुपच्छाभत्तिकङ्गं । (७) अरजे निवासो सीलमस्सा ति आरञ्ञिको । तस्स अङ्गं आरञ्ञिकङ्गं । (८) 'दान' का अर्थ है-अपने से पृथक् करना ( अवखण्डन), या काटना । दान से रहित होना= अपदान, अर्थात् अनवखण्डन ( = अन्तर- रहितता) । अपदानसहित हुआ-सापदान; अर्थात् अवखण्डनरहित। यों (भिक्षाहेतु) प्रत्येक घर सापदान विचरण करना जिस भिक्षु का शील हो वह सापदानचारिक कहलाता है और उसका अङ्ग कहलाया - सापदानचारिकाङ्ग (सपदानचारिकङ्ग)। (8) एक आसन पर रहते हुए भोजन कर्म को 'एकासन' कहते हैं। वह एक आसन का भोजन जिस भिक्षु का शील है, वह भिक्षु ऐकासनिक (एकासनिक) कहलाता है। उसका अङ्ग हुआ ऐकासनिकाङ्ग (एकासनिकम) । (५) द्वितीय पात्र के परित्याग से, केवल एक ही पात्र में पड़ा हुआ पिण्ड (ग्रास-दो ग्रास भोजन) 'पात्रपिण्ड' कहलाता है। अब पात्रपिण्ड-ग्रहण को पात्रपिण्ड नाम देकर, पात्रपिण्ड है शील जिसका वह हुआ पात्रपिण्डिक । उसका अङ्ग (व्रत) पात्रपिण्डिका (पत्तपिण्डकङ्ग) कहा जाता है। (६) 'खलु' इस निपात पद का अर्थ है-प्रतिषेध (भोजनकर्ता द्वारा) निषेध कर देने के बाद मिले भात=भक्त (अर्थात् भोज्य पदार्थ) को 'पच्छाभत्त' कहते हैं। उस पच्छाभत्त के भोजन को पच्छाभत्त नाम देकर, क्योंकि पच्छाभत्त उस भिक्षु का शील है, इसलिये वह भिक्षु 'पच्छाभक्तिक' कहलाया। एक बार भोजन ग्रहण के पश्चात् अतिरिक्त (दुबारा ) भोजन को अस्वीकार कर देने वाले साधक का यह (पच्छाभत्तिक शब्द ) पर्याय है। किन्तु अट्ठकथा में लिखा है-'खलु' एक पक्षी का नाम है। वह मुख में फल लेकर, उसके गिर जाने के बाद, पुनः दूसरा (फल) नहीं खाता; उसी के समान यह पच्छाभत्तिक भिक्षु है। उसके अङ्ग को ही खलुपच्छाभत्तिकन (खलुपश्चाद्भक्तिकाङ्ग) कहलाते हैं।। (७) अरण्य (जङ्गल) के एकान्त प्रदेश में रहना ही जिसका स्वभाव बन गया हो वह आरण्यक (आरञ्ञिक) कहलाता है। उसका अङ्ग हुआ-- आरञिकम (आरण्यकाङ्ग) । (८)
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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