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विसुद्धिमग्ग पभेदतो भेदतो च तस्स तस्सानिसंसतो॥१॥ कुसलत्तिकतो चेव धुतादीनं विभागतो।।
समासब्यासतो चापि विज्ञातब्बो विनिच्छयो॥२॥ ३. तत्थ अत्थतो ति ताव-पथिक-सुसान-संकारकूटादीनं यत्थ कत्थचि पंसून उपरि ठितत्ता अब्भुग्गतठून तेसु तेसु पंसुकूलमिवा ति पंसुकूलं । अथ वा पंसु विय कुच्छितभावं उलती ति पंसुकूलं, कुच्छितभावं गच्छती ति वुत्तं होति । एवं लद्धनिब्बचनस्स पंसुकूलस्स धारणं पंसुकूलं, तं सीलमस्सा ति पंसुकूलिको। पंसुकूलिकस्स अङ्गं पंसुकूलिकळं। अङ्गं ति कारणं वुच्चति। तस्मा येन समादानेन सो पंसुकूलिको होति, तस्सेतं अधिवचनं ते वेदितब्बं । (१) ।
एतेनेव नपेन सङ्घाटि-उत्तरासङ्ग-अन्तरवासकसङ्खातं तिचीवरं सीलमस्सा ति तेचीवरिको। तेचीवरिकस्स अङ्गं तेचीवरिकङ्गं । (२)
भिक्खासङ्घातानं पन आमिसपिण्डानं पातो ति पिण्डपातो, परेहि दिन्नानं पिण्डानं पत्ते निपतनं ति वुत्तं होति। तं पिण्डपातं उञ्छति तं तं कुलं उपसङ्कमन्तो गवसती ति पिण्डपातिको। पिण्डाय वा पतितुं वतमेतस्सा ति पिण्डपाती। पतितुं ति चरितुं । पिण्डपाती एव पिण्डपातिको। पिण्डपातिकस्स अङ्गं पिण्डपातिकडं। (३)
दानं वुच्चति अवखण्डनं, अपेतं दानतो ति अपदानं, अनवखण्डनं ति अत्थो। सह
धुतानों का अर्थ आदि से विनिश्चय
इन धुताङ्गों का- १. अर्थ, २. लक्षण आदि, ३. ग्रहण (सम्पादन) करने के विधान, ४. उनके प्रभेद, ५. भेद (=भङ्ग), उस उसके माहात्म्यबोधन, ६. कुशलत्रिक के माध्यम, ७. धुत-आदि के विभाग एवं ८. संक्षेप या विस्तार से भी विनिचिया निर्णय) जानना चाहिये।।
३. उनमें, अर्थ से विनिश्चय इस प्रकार है- (क) पथ, श्मशान, कूड़े के ढेर, जहाँ-कहीं धूल में पड़ा हुआ, उनके बीच धूल (=पांशु) के किनारे (=कूल) के समान, ऊपर उठा उठा सा-इन अर्थों में 'पांशुकूल' है। अथवा (ख) पांशु के समान कुत्सित भाव को प्राप्त, या कुत्सित भाव की ओर जाता है-इसलिये भी 'पांशुकूल' है। ऐसे निर्वचन (=अभिप्राय) वाले पांशुकूल को धारण करना ही 'पांशुकूल' कहलाता है। वह (पांशुकूल) इस भिक्षु का शील है, अतः वह भिक्षु 'पांशुकूलिक' कहलाता है। इस पांशुकूल को धारण करने से वह 'पांशुकूलिक बनता है उसी में यह शब्द अभिप्रेत है- ऐसा जानना चाहिये। (१)
इस प्रकार १.सबाटी, २. उत्तरासग एवं ३. अन्तर्वासक नामक तीन चीवर धारण करने का भी एक शील होता है, इस शील को धारण करने वाला भिक्षु त्रैचीवरिक कहलाता है। इस त्रैचीवरिक का अङ्ग (कारण) हुआ- त्रैचीवरिकाज़ (तेचीवरिका)। (२)
(क) भिक्षा' नामक अन्न के पिण्डों का गिरना (=पात) 'पिण्डपात' अर्थात् दूसरों के दिये हुए अन्नपिण्डों का पात्र में गिरना कहलाता है। जो भिक्षु उस पिण्डपात को यहाँ-वहाँ से, इधर-उधर से एकत्र करता है, इस-उस परिवार में जाकर उसे खोजता है अतः वह पिण्डपातिक है। (ख) अथवापिण्ड के लिये पतन करना जिसका व्रत है वह 'पिण्डपातिक' है। यहाँ 'पतन' का अर्थ है-चरना (=विचरण करना)। ऐसा पिण्डपात करने वाला ही 'पिण्डपातिक' कहलाता है। इस पिण्डपातिक का अङ्ग कहलाया-पिण्डपातिकाज़ (पिण्डपातिकड़)। (३)