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विसुद्धिमग्ग कोई अतिशयोक्ति नहीं है। यह कहकर उन विद्वानों ने इस ग्रन्थ की तथा इसके रचयिता आचार्य बुद्धघोष की वास्तविक प्रशंसा ही की है।
आचार्य बुद्धघोष भी अपने इस विसुद्धिमग्ग को अपनी सम्पूर्ण रचनाओं का केन्द्रबिन्दु मानते थे, अत: वे अपनी अट्ठकथाओं के मनन-चिन्तन करने वाले पाठक से यह अपेक्षा रखते थे कि वह सर्वप्रथम 'विसुद्धिमग्ग' पढ़े। इसलिये उन्होंने अपनी आगे की अट्ठकथाओं के प्रारम्भ में ही बार-बार कहा है-'चारों निकायों (दीघ, मज्झिम, संयुत्त तथा अंगुत्तर) के मध्य स्थित यह विसुद्धिमग्ग उन निकायों के बुद्धसम्मत अर्थ को प्रकाशित करने में सहायक होगा।'
__ इससे यह स्पष्ट ही सिद्ध है कि आचार्य ने पहले विसुद्धिमाग की रचना की, बाद में उक्त चारों निकायों की अट्ठकथाओं की। इसीलिये विसुद्धिमग्ग में जिस विषय का विस्तृत निरूपण कर दिया है उसे पुन: उन अट्ठकथाओं में नहीं दुहराया और वहाँ लिख दिया कि "इन सब का शुद्धतया निरूपण विसुद्धिमग्ग में कर दिया है, अत: उसे जिज्ञासु पाठकों को वहीं देख लेना चाहिये। उसे मैं यहां न दुहराऊँगा।"
... जैसा कि सर्वविदित है, विसुद्धिमग्ग संयुत्तनिकाय में आयी दो गाथाओं के आधार पर रचित, बौद्ध योगशास्त्र का स्वतन्त्र मौलिक प्रकरण-ग्रन्थ है। इन दोनों में पहली गाथा प्रश्न के रूप में तथा दूसरी गाथा उत्तर के रूप में है। इस दूसरी गाथा का ही आचार्य ने विसुद्धिमग्ग के रूप में विस्तृत व्याख्यान किया है। पहली गाथा है
अन्तो जटा बहि जटा जटाय जटिता पजा।
तं तं गोतम पुच्छामि-को इमं विजटये जट?॥ ति॥ [एक बार भगवान् बुद्ध श्रावस्ती में विहार कर रहे थे, उस समय किसी देवता ने आकर भगवान् से पूछा-अन्दर भी जजाल (ठलझन) है, बाहर भी जञ्जाल है, यह सारा संसार जञ्जाल से कैसे छुटकारा पा सकता है? अर्थात् यह समग्र संसार भवबन्धन में जकड़ा हुआ है, कौन किस उपाय से इससे मुक्त हो सकता है ?] दूसरी गाथा है
सीले पतिद्वाय नरो सपनो चित्तं पञ्खं च भावयं।
आतापी निपको भिक्खु सो इमं विजटये जटं ति॥ [इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं-शील (सदाचार) में प्रतिष्ठित हो कर जो प्रज्ञावान् . पुरुष जब समाधि और प्रज्ञा की भावना करता है, तब वह उद्योगी तथा ज्ञानवान् पुरुष भिक्षु (त्यागी) हो कर इस जाल (भवबन्धन) को सुलझा लेता है।
आचार्य ने भगवान् के इस उत्तर के सहारे समग्र बौद्ध सिद्धान्त और दर्शन को एक निश्चित उद्देश्य में ग्रथित कर विसुद्धिमग्ग की अवतारणा की है। वह निश्चित उद्देश्य है-साधना मार्ग के उत्तरोत्तर विकास का स्पष्टतम निर्देश। दूसरे शब्दों में हम यों भी कह सकते हैं कि विसुद्धिमग्ग बौद्धयोग को एक अत्यन्त क्रमबद्ध पद्धति से उपस्थित करने का बुद्धिमत्तापूर्ण प्रयास है।
"मन बिसुद्धिमग्गो एस चतुत्रं पि आगमानं हि। ठत्वा पकासपिस्सति तत्व यथाभासितं अत्यं"ति॥ "इति पन सम्बं यस्मा विसुद्धिमग्गे मया सुपरिसुद्ध। बुतं, तस्मा भिय्यो न त इध विचारयिस्सामी"ति॥
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