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बहिरङ्गकथा वर्ण्य विषय-विसुद्धिमग्ग का वर्ण्य विषय संक्षेप में यह है-शील, समाधि और प्रज्ञा द्वारा चित्त के समग्रमल का निरसन तथा निर्वाण की प्राप्ति (का उपाय) बुद्ध-शासन की यही तीन शिक्षा हैं। शील से शासन की आदिकल्याणता प्रकाशित होती है, समाधि से मध्येकल्याणता, तथा प्रज्ञा (पआ) से पर्यवसानकल्याणता। शील से अपाय (दुर्गतिविनिपात) का अतिक्रमण, समाधि से कामधातु का और प्रज्ञा से सर्वभव का अतिक्रमण होता है। जो व्यक्ति निर्वाण के लिये यत्नशील होता है उसे पहले शील में प्रतिष्ठित होना चाहिये। जब शील अल्पेच्छता, सन्तुष्टि, प्रविवेक (एकान्तवास) आदि गुणों द्वारा सुविशुद्ध हो जाता है तो उसके प्रभाव से चित्त तथा चैतसिक धर्मों की एक आलम्बन में विना किसी विक्षेप के सम्यक् स्थिति हो जाती है। समाधि में विक्षेप का विध्वंस होता है, और चित्त, चैतसिक विप्रकीर्ण न हो कर एक आलम्बन में पिण्डरूप से अवस्थित होते हैं। समाधि दो तरह की होती है-१. लौकिक समाधि, और २. लोकोत्तर समाधि। काम, रूप और अरूप भूमियों की कुशल चित्तैकाग्रता को लौकिक समाधि कहते हैं तथा जो चित्तैकाग्रता आर्यमार्ग से सम्प्रयुक्त होती है उसे लोकोत्तर समाधि कहते हैं। इस लोक को उत्तीर्ण कर स्थित रहने वाली लोकोत्तर समाधि का भावनाप्रकार प्रज्ञा के भावना-प्रकार में संगृहीत है। प्रज्ञा के सुभावित होने से ही लोकोत्तर समाधि की भावना होती है। अतः लोकोत्तर समाधि प्रज्ञास्कन्ध का विषय है।
___ प्रयोजन-हम पहले कह आये हैं कि आचार्य बुद्धघोष बुद्धमत में प्रव्रजित होने से पूर्व पातञ्जल योग में निष्णात थे। निश्चय ही उन्होंने बौद्धों के इस योगदर्शन को साधकों के कल्याण के लिये विसुद्धिमग्ग के रूप में प्रकाशित किया है। भिक्षु जगदीश काश्यप के मत में "पातजल योगदर्शन की अपेक्षा विसुद्धिमग्ग अधिक सुव्यवस्थित और नियमबद्ध है-यह कहना अतिरञ्जना नहीं होगी" आचार्य बुद्धघोष ने साधकों के कल्याण के लिये ही इस ग्रन्थ की रचना की है-यह बात उन्होंने छिपायी नहीं, अपि तु प्रत्येक परिच्छेद के अन्त में 'साधुजनपामोजत्थाय कते विसुद्धिमग्गे' कहकर अपने हृदय की बात बार-बार स्पष्ट कर दी
. इसी प्रकार उन्होंने ग्रन्थ के प्रारम्भ में भी कह दिया कि मैं अब विशुद्धि के मार्ग का प्रवचन करूंगा, सभी साधु पुरुष, जिन्हें अपनी चित्तविशुद्धि की कामना है, मेरे कहे हुए को आदरपूर्वक सुर्ने।
इस तरह अन्त:साक्ष्य के स्पष्ट आधार से सिद्ध हो जाता है कि इस ग्रन्थ का निर्माण केवल साधु (साधक) जन के प्रामोध (कल्याण) के लिये ही हुआ है।
आधार-यह ग्रन्थ महाविहारवासी भिक्षुओं की उपदेश-विधि पर आधृत है, यह बात भी आचार्य ने प्रारम्भ में ही यह कर स्पष्ट कर दी है कि "महाविहारवासी भिक्षुओं की उपदेशविधि पर आधृत विसुद्धिमग्ग ग्रन्थ का कथन करूंगा।"
__ यह बात पहले कही जा चुकी है कि बुद्धघोष के समय तक पालित्रिपिटक तथा पालिसाहित्य के विषय में सिंहलद्वीप की प्रामाणिकता सर्वोपरि थी। सिंहल द्वीप में भी अनुराधपुरस्थित महाविहार पालि-साहित्य का सर्वोपरि प्रामाणिक पीठ था। आचार्य का इसी महाविहार में रहने वाले स्थाविर भिक्षुओं की ओर संकेत है। इस तरह महाविहारवासी भिक्षुओं
"महाविहारवासीन देसनानयनिस्सित। विसुद्धिमार्ग भासिस्स"