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________________ ८२ विसुद्धिमग एवं हि विभावयतो सीलविपत्तितो उब्बिज्जित्वा सीलसम्पत्तिनिन्नं मानसं होति। तस्मा यथावुत्तं इमं सीलविपत्तिया आदीनवं इमंचसीलसम्पत्तिया आनिसंसं दिस्वा सब्बादरेन सीलं वोदापेतब्बं ति॥ ५२. एत्तावता च 'सीले पतिट्ठाय नरो सपओ' ति इमिस्सा गाथाय सीलसमाधिपामुखेन देसिते विसुद्धिमग्गे सीलं ताव परिदीपितं होति। इति साधुजनपामोजत्थाय कते विसुद्धिमग्गे सीलनिदेसो नाम पठमो परिच्छेदो॥ इस प्रकार चिन्तन-मनन (विभावना=) करने वालों का मन शीलविपत्ति की ओर से उदासीन होकर शीलसम्पत्ति की प्राप्ति की तरफ झुका रहता है। अतः यथाकथित शीलविपत्ति के दोष तथा इस शीलसम्पत्ति का माहात्म्य देखकर सर्वथा आदर के साथ स्वकीय शील को परिशुद्ध करना चाहिये। ५२. यहाँ तक ‘सीले पतिद्वाय नरो सपओ' इस गाथा के सहारे, शील समाधि एवं प्रज्ञा के भेद से उपदिष्ट इस विशुद्धिमार्ग ग्रन्थ में शील का विवरण साङ्गोपाङ्ग (परिदीपित) हुआ। साधुजनों के प्रमोदहेतु रचित इस विशुद्धिमार्ग (ग्रन्थ) में शीलनिर्देश नामक प्रथम परिच्छेद समाप्त ।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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