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________________ १. सीलनिद्देस अत्तानुवादादिभयं सुद्धसीलस्स भिक्खुनो। अन्धकारं विय रविं हदयं नावगाहति ॥२॥ सीलसम्पत्तिया भिक्षु सोभमानो तपोवने। पभासम्पत्तिया चन्दो गगने विय सोभति ॥३॥ कायगन्धो पि पामोजं सीलवन्तस्स भिक्खुनो। करोति अपि देवानं सीलगन्धे कथा व का॥४॥ सब्बेसं गन्धजातानं सम्पत्तिं अभिभुय्यति। अविघाती दिसा सब्बा सीलगन्धो पवायति ॥५॥ अप्पका पि कता कारा सीलवन्ते महप्फला। होन्ती ति सीलवा होति पूजासकारभाजनं ॥६॥ सीलवन्तं न बाधन्ति आसवा दिद्वधम्मिका। सम्परायिकदुक्खानं मूलं खणति सीलवा॥७॥ या मनुस्सेसु सम्पत्ति या च देवेसु सम्पदा।। न सा सम्पन्नसीलस्स इच्छतो होति दुल्लभा॥ ८॥ अच्चन्तसन्ता पन या अयं निब्बानसम्पदा। मनो सम्पन्नसीलस्स तमेव अनुधावति ॥९॥ सब्बसम्पत्तिमूलम्हि सीलम्हि इति पण्डितो। अनेकाकारवोकारं आनिसंसं विभावये ति॥१०॥ शुद्धशील भिक्षु के मन में स्वनिन्दा आदि का भय वैसे ही नहीं रहता जैसे सूर्य के प्रकाश में अन्धकार ||२|| स्व-शीलसम्पत्ति के कारण भिक्षु तपोवन में वैसे ही शोभित होता है, जैसे आकाश में अपनी प्रभा-सम्पत्ति से चन्द्रमा शोभित होता है।।३।। शीलवान् भिक्षु के शरीर की सुगन्ध ही देवताओं को आह्वादित कर देती है, फिर उसके सील की गन्ध का तो कहना ही क्या!।। ४।। इस शील की गन्ध सभी प्रकार की गन्धों को अभिभूत करती (दबाती) हुई सभी दिशाओं में अबाध रूप से प्रवाहित होती रहती है।।५।। 'शीलवान् के प्रति किया गया अल्पमात्र भी उपकार महान् फलदायी होता है-ऐसा जानकर सज्जनों द्वारा वह पूजा और सम्मान का पात्र बन जाता है ।।६।। शीलवान् को लौकिक आस्रव (चित्तविकार) पीड़ित नहीं करते। और वह स्वधर्मसाधना से पारलौकिक दुःखों को तो समूल ही नष्ट कर डालता है ।।७।। मनुष्यों या देवताओं के अधीन जो भी सम्पत्ति है वह शीलवान् को, इच्छा करने पर, कुछ भी दुर्लभ नहीं होती।। ८॥ इतने पर भी, शीलसम्पन्न भिक्षु का मन तो अत्यन्त शान्त निर्वाण पद की ओर ही दौड़ता है।॥९॥ यों, सर्वसम्पत्तिमूलक इस शील के विषय में पण्डित (बुद्धिमान) जनों को इसके अनेकविध महात्म्य या गुण के विषय में सम्यक्तया ज्ञान प्राप्त कर लेना चाहिये ।। १०।।
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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