________________
विसुद्धिमग्ग दुस्सीलस्स विहारे सद्धादेय्यम्हि का निवासरति ! जालतेसु निवसितब्बं येन अयोकुम्भिमज्झेसु॥७॥ सङ्कस्सरसमाचारो कसम्बुजातो अवस्सुतो पापो। अन्तोपूती ति च यं निन्दन्तो आह लोकगरु ॥८॥ धी जीवितं असञतस्स तस्स समणजनवेसधारिस्स। अस्समणस्स उपहतं खतमत्तानं वहन्तस्स ॥९॥ गूथं विय कुणपं विय मण्डनकामा विवज्जयन्तीध । यं नाम सीलवन्तो सन्तो किं जीवितं तस्स ॥१०॥ सब्बभयेहि अमुत्तो मुत्तो सब्बेहि अधिगमसुखेहि। सुपिहितसग्गद्वारो अपायमग्गं समारूळ्हो ॥११॥ करुणाय वत्थुभूतो कारुणिकजनस्स नाम को अञो।
दुस्सीलसमो दुस्सीलताय इति बहुविधा दोसा ति ॥१२॥ एवमादिना पच्चवेक्खणेन सीलविपत्तियं आदीनवदस्सनं, वुत्तप्पकारविपरीततो सीलसम्पत्तिया आनिसंसदस्सनं च वेदितब्बं । __५१. अपि च
तस्स पासादिकं होति पत्तचीवरधारणं।
पब्बज्जा सफला तस्स यस्स सीलं सुनिम्मलं ॥१॥ दुःशील की श्रद्धा से बनवाये विहारों में भी क्या आसक्ति हो पायगी जब कि उसे स्वकृत पापों के फलस्वरूप लोहे के बने कड़ाहों की ही तीव्र तपन सहनी है!।। ७।।
जिस (दुःशील) की निन्दा में लोकगुरु भगवान् ने स्वश्रीमुख से स्वयं कहा है कि वह पापी तो (जनमानस में) सन्दिग्ध जीवन बिताने वाला, कूड़े-कर्कट के समान (त्याज्य), श्रुत के विरुद्ध आचरणकर्ता एवं हृदय से अशुचि (कलुषित) अतएव लोकनिन्दित ही माना जाना चाहिये।। ८ ।।
उसके जीवन को धिक्कार है; क्योंकि असंयमी होने से वह श्रमण-वेषधारी होकर भी अमण भाव से दूर है। वह (अपने दुष्कर्मों से) अपने ही जीवन की जड़ खोद रहा है!।। ९ ।।
जिसको समाज में अपना यश चाहने वाले शीलवान् जन गूथ (मल) व सड़े मुर्दे की तरह अपने पास भी नहीं फटकने देते, उसे दूर से ही भगा देते हैं, ऐसे दुःशील के जीवन से क्या लाभ!" ||१०॥
(दुःशील तो ) सर्व प्रकार के भय से घिरा हुआ (अमुक्त) तथा सभी मार्ग-फल- प्राप्ति-सुखों से दूर है, वञ्चित है और जिसके लिये स्वर्ग का द्वार सदा के लिये बन्द हो चुका है तथा वह अपाय (नरक-) मार्ग पर जाने के लिये अपने कदम बढ़ा चुका है।। ११।।
(भला बताइये) करुणावानों की करुणा का पात्र ऐसे दुःशीलों के अतिरिक्त किसे कहा जा सकता है जिसमें दुःशीलता के कारण अनेक प्रकार के दोष घर कर गये हैं! ।। १२ ।।
- इस प्रकार प्रत्यवेक्षण से, शील के क्षय में दोष-दर्शन एवं इसके विपरीत शीलसम्पत्ति के माहात्म्यदर्शन को समझना चाहिये।
५१. (शील-सम्पत्ति के माहात्म्य में) और भी कहा गया है
जिस भिक्षु का शील स्वच्छ (प्रासादिक सभी जनों को प्रसन्न करने वाला) है उसका पात्रचीवर धारण करना एवं प्रव्रज्या (भिक्षुभाव) ग्रहण करना सफल है।। १ ।।