________________
१. सीलनिदेस ५०. इमाहि वालरज्जु-तिण्हसत्ति-अयोपट्ट-अयोगुळ-अयोमञ्च-अयोपीठअयोकुम्भीउपमाहि अभिवादनअञ्जलिकम्मचीवरपिण्डपातमञ्चपीठविहारपरिभोगपच्चयं दुक्खं दस्सेसि। तस्मा
अग्गिक्खन्धालिङ्गन- दुक्खादिकदुक्खकटुकफलं। अविजहतो कामसुखं सुखं कुतो भिन्नसीलस्स॥१॥ अभिवादनसादने किं नाम सुखं विपन्नसीलस्स! दळ्हवाळरज्जुधंसन- दुक्खाधिकदुक्खभागिस्स ॥ २ ॥ सद्धानं अञ्जलिकम्मसादने किं सुखं असीलस्स! सत्तिप्पहारदुक्खाधिमत्तदुक्खस्स यं हेतु ॥३॥ चीवरपरिभोगसुखं किं नाम असंयतस्स येन चिरं! । अनुभवितब्बो निरये जलितअयोपट्टसम्फस्सो ॥ ४॥ मधुरो पि पिण्डपातो हलाहलविसूपमो असीलस्स।
आदित्ता गिलितब्बा अयोगुळा येन चिररत्तं ॥५॥ • सुखसम्मतो पि दुक्खो असीलिनो मञ्चपीठपरिभोगो। यं बाधिस्सन्ति चिरं जलितअयोमञ्च-पीठानि ॥६॥
५०. यों, भगवान् ने इन १. बालों की रस्सी. २. तीक्ष्ण छुरी (शक्ति), ३. तपते चपटे लोहे का पत्र, ४. तपते लोहे का गोला, ५. अग्नि से तपती लोहे की चारपाई या तख्ता, ६ तपते लोहे का कटाह- इन छह उपमाओं से अभिवादन, करबद्ध प्रणाम, चीवर, पिण्डपात, शयनासन (चौकी, चारपाई), विहार के परिभोग की अपेक्षा द्वारा दुःखों का विशद वर्णन किया है।
इसलिये
जो अग्निपुअ के आलिङ्गन से समुद्भूत दुःख से भी अपेक्षाकृत अधिक कष्टदायक एवं कटु . फल देने वाले काम-सुख को नहीं त्यागता, ऐसे खण्डितशील पुद्गल को सुख कहाँ! ।।१।।
सुदृढ रस्सी के बन्धन-घर्षण से जन्य दुःख से भी अधिक दुःख भोगने वाले विपन्नशील (विनष्ट शील वाले) व्यक्ति को क्षत्रिय ब्राह्मणादि द्वारा कृत अभिवादन में क्या सुख मिल सकता है! ||२||
श्रद्धालुओं का साअलि प्रणाम स्वीकार करने में खण्डितशील व्यक्ति को क्या सुख मिलेगा, जब कि उसका खण्डित शील ही उस शक्तिप्रहार से होने वाले दुःख से भी अधिक दुःख का उत्पादक है ! ।।३।।
उस शीलरहित असंयमी के लिये चीवरपरिभोग का क्या सुख मिलेगा जब कि उसे, उस असंयम के कारण नरक में जाक, जलते लौहपत्र का स्पर्श सहन करना पड़ता है! ।। ४ ।।
उस शीलरहित के लिये मधुर भिक्षान्न भी हलाहल विष के समान है, जिसके (शीलराहित्य के) कारण उसे दीर्घकाल तक जलता हुआ अयोगोलक (लोहे का गोला) मुख में रखना पड़ता है।।५।।
अत्यधिक सुखपरिभोग की उपस्थिति भी उस अशीलवान् के लिये दुःखेन लभ्य ही कही जानी चाहिये, क्योंकि उसे तो अपने किये पापों का फल भोगने के लिये लोहे की बनी चारपाई का उपभोग करना है!||६||