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________________ ७८ विसुद्धिमग्ग (ग)"तं किं मञ्जथ, भिक्खवे, कतमं नु खो वरं यं बलवा पुरसो तत्तेन अयोपट्टेन आदित्तेन सम्पज्जलितेन सजोतिभूतेन कार्य सम्पलिवेठेय्य, यं वा खत्तियमहासालानं वा ब्राह्मणमहासालानं वा गहपतिमहासालानं वा सद्धादेय्यं चीवरं परिभु य्या ति च? (घ) "तं किं मथ, भिक्खवे, कतमं नु खो वरं यं बलवा पुरिसो तत्तेन अयोसङ्कना आदित्तेन सम्पजलितेन सजोतिभूतेन मुखं विवरित्वा तत्तं लोहगुळं आदित्तं सम्पज्जलितं सजोतिभूतं मुखे पक्खिपेय्य, तं तस्स ओटुं पि डहेय्य, मुखं पि, जिव्हं पि, कण्ठं पि, उदरं पि डहेय्य, अन्तं पि, अन्तगुणं पि आदाय अधोभागं निक्खमेय्य, यं वा खत्तिय ब्राह्मण गहपतिमहासालानं वा सद्धादेय्यं पिण्डपातं परिभुञ्जेय्या ति च? _(ङ) "तं किं मञ्जथ, भिक्खवे, कतमं नु खो वरं यं बलवा पुरिसो सीसे वा गहेत्वा खन्धे वा गहेत्वा तत्तं अयोमञ्चं वा अयोपीठं वा आदित्तं सम्पज्जलितं सजोतिभूतं अभिनिसीदापेय्य वा अभिनिपज्जापेय्य वा, यं वा खत्तियः ब्राह्मण गहपतिमहासालानं वा सद्धादेय्यं मञ्चपीठं परिभुञ्जेय्या ति च? (च) "तं किं मञ्जथ, भिक्खवे, कतमं नु खो वरं यं बलवा पुरिसो उद्धपादं अधोसिरं गहेत्वा तत्ताय अयोकुम्भिया पक्खिपेय्य आदित्ताय सम्पजलिताय सजोतिभूताय, सो तत्थ फेणुद्देहकं पच्चमानो सकिं पि उद्धं गच्छेय्य, सकिं पि अधो गच्छेय्य, सकिं पि तिरियं गच्छेय्य, यं वा खत्तिय.... ब्राह्मण.... गहपतिमहासालानं वा सद्धादेय्यं विहारं परिभुञ्जेय्या?" (अं० नि० ३-२५२) ति च। भीगी तीखी छुरी से ठीक छाती पर प्रहार करे या (२) यह अच्छा है कि किसी क्षत्रिय, ब्राह्मण या गृहपति महासार के द्वारा हाथ जोड़कर किये गये प्रणाम को स्वीकार करे?" . (ग) "तो क्या मानते हो, भिक्षुओ! कि (१) क्या यह अच्छा है कि किसी बलवान् पुरुष के द्वारा जलते लपलपाते चमकते लोहे के पत्र द्वारा शरीर को परिवेष्टित करवाया जाय (२) या यह अच्छा है कि किसी क्षत्रिय ब्राह्मण या गृहपति महासार द्वारा प्रदत्त चीवर से वह शरीर ढका जाय?" (घ) तो क्या मानते हो, भिक्षुओ! कि (१) क्या यह अच्छा है-कोई बलवान् पुरुष तपती, जलती, लपलपाती, चमकती लोहे की सँड़सी से मुँह खोल कर उसमें तपता, जलता, लपलपाता, चमकता लोहे का गोला डाले तब वह उसका ओठ भी, मुख भी, कण्ठ भी, उदर भी जलाये और वह बड़ी आँतों व छोटी आँतों को लेकर नीचे से निकले, या (२) यह अच्छा है कि किसी क्षत्रिय, ब्राह्मण या गृहपति महासार द्वारा श्रद्धाप्रदत्त पिण्डपात का परिभोग किया जाय?' (ङ) तो क्या मानते हो, भिक्षुओ! इनमें कौन सी बात तुम्हें अच्छी लगती है-(१) क्या कोई बलवान् पुरुष शिर या कन्धा पकड कर तपते लपलपाते जलते लोहे की चारपाई या चौकी पर बैठाये; लिटाये? या (२) किसी क्षत्रिय ब्राह्मण या गृहपति महासार द्वारा श्रद्धापूर्वक प्रदत्त चारपाई या चौकी (मञ्चपीठ) का उपभोग करे?" (च) "तो क्या मानते हो, भिक्षुओ! तुम्हें क्या अच्छा लगता है कि (१) कोई बलवान् पुरुष किसी को ऊपर पैर और नीचा सिर (यों उलटा लटका) कर तपती जलंती, लपलपाती लौह-कुम्भी (लोहे के बड़े कटाह ) में डाल दे और वह वहाँ झाग छोड़कर पकते हुए कभी ऊपर, कभी नीचे या कभी तिरछे उलट-पुलट होता रहे? या (२) फिर किसी क्षत्रिय ब्राह्मण या गृहपति महासार द्वारा निर्मापित विहार का (स्वसाधनाहेतु) उपभोग करे?"
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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