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________________ १. सीलनिद्देस ७७ उपनिपज्जेय्य वा" ति। "आरोचयामि वो, भिक्खवे, पटिवेदयामि वो, भिक्खवे, यथा एतदेव तस्स वरं दुस्सीलस्स पापधम्मस्स असुचिसङ्कस्सरसमाचारस्स पटिच्छन्नकम्मन्तस्स अस्समणस्स समणपटिञस्स अब्रह्मचारिस्स ब्रह्मचारिपटिञस्स अन्तोपूतिकस्स अवस्सुतस्स कसम्बुजातस्स यं अमुं महन्तं अग्गिक्खन्धं ....पे०....उपनिपज्जेय्य वा। तं किस्स हेतु? ततो निदानं हि सो, भिक्खवे, मरणं वा निगच्छेय्य मरणमत्तं वा दुक्खं, न त्वेव तप्पच्चया कायस्स भेदा परं मरणा अपायं दुग्गतिं विनिपातं निरयं उपपज्जेय्या" ति (अं० नि०३-२५१)। एवं अग्गिक्खन्धूपमाय इत्थिपटिबद्धपञ्चकामगुणपरिभोगपच्चयं दुक्खं दस्सेत्वा एतेनेव उपायेन (क) "तं किं मञथ, भिक्खवे, कतमं नु खो वरं यं बलवा पुरिसो दळ्हाय वाळरजुया उभो जचा वेठेत्वा घंसेय्य, सा छविं छिन्देय्य, छविं छेत्वा चम्मं छिन्देय्य, चम्म छेत्वा मंसं छिन्देय्य, मसं छेत्वा न्हाळं छिन्देय्य, न्हारुं छेत्वा अटुिं छिन्देय्य, अर्टि छेत्वा अट्ठिमिजं आहच्च तिट्ठय्य? यं वा खत्तियमहासालानं वा ब्राह्मणमहासालानं वा गहपतिमहासालानं वा अभिवादनं सादियेय्या ति च? (ख)"तं कि मञथ, भिक्खवे, कतमं नु खो वरं यं बलवा पुरिसो तिण्हाय सत्तिया तेलधोताय पच्चोरस्मि पहरेय्य? यं वा खत्तियमहासालानं वा ब्राह्मणमहासालानं वा गहपतिमहासालानं वा अञ्जलिकम्मं सादियेय्या ति च? क्योंकि इस महान् अग्निपुअ को आलिङ्गनबद्ध कर बैठना तो अत्यन्त पीड़ाकर हो जायगा।" "भिक्षुओ! मैं तुम से कहता हूँ, तुम्हें बताता हूँ कि उस दुःशील, पापी, अपवित्र मल की राशि के सदृश, सन्दिग्ध प्रच्छन्न कर्मयुक्त, अश्रमण होते हुए भी श्रमणभाव का दावा करने वाले, अब्रह्मचारी होते हुए भी ब्रह्मचारित्व का दावा करने वाले, आभ्यन्तर (मानसिक) अपवित्रता से पूर्ण, मिथ्याश्रुत (अवश्रुत) अर्थात् गुरुमुख से सुने हुए को उलट देने वाले, कूड़े की राशि के सदृश व्यक्ति के लिये तो यही अधिक अच्छा होगा कि वह ऐसा जीवन जीने की अपेक्षा उस अग्निपुञ्ज को आलिङ्गनबद्ध कर बैठे या लेट जाय । वह क्यों? वह इसलिये भिक्षुओ! कि वह अग्निपुअ को आलिङ्गनबद्ध करने के कारण मर सकता है या मरणतुल्य कष्ट पा सकता है; परन्तु इस कारण मरने के बाद उसका पतन, उसकी दुर्गति या उसका किन्हीं नरकयोनियों में जन्म तो नहीं होगा!' इस प्रकार, इस अग्निपुञ्ज की उपमा द्वारा स्त्रियों से सम्पृक्त पाँच कामगुणों के परिभोग से होने वाले दुःख का वर्णन कर भगवान् ने इससे आगे उसी उपाय (पद्धति) से सात दृष्टान्तों से सप्तविध दुःखों का और भी विस्तृत वर्णन किया है (क)"तो क्या मानते हो, भिक्षुओ! कौन सी बात तुम्हें अच्छी लगती है कि (१) कोई बलवान् पुरुष सुदृढ़, घोड़े की पूँछ के बालों से बनी रस्सी से किसी के दोनों पैरों की दोनों जाँघों को बँधवा कर इतना रगड़े कि वह रस्सी. उसकी जाँघों की ऊपरी त्वचा को काट दे, उसे काट कर भीतरी त्वचा को भी काट कर माँस को भी काट डाले, मांस को काट कर स्नायुओं (मोटी नसों) को भी काट डाले, यों वह स्रायुओं को काट कर क्रमशः अस्थि को काटती हुई मज्जा पर जाकर रुके या (२) यह अच्छा लगता है-कोई क्षत्रिय महासार (जिसके कोष में सौ करोड़ की सम्पत्ति हो-(द्र० अभि० प्प० ३३७-३९), ब्राह्मण महासार या गृहपति महासार तुम्हें अभिवादन करे?" (ख) "तो क्या मानते हो, भिक्षुओ! (१) क्या यह अच्छा है कि-कोई बलवान् पुरुष तैल से
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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