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विसुद्धिमग्ग महप्फलकरणतो अप्पग्यो । अनेकवस्सगणिकगूथकूपो विय दुब्बिसोधनो। छवालातमिव उभतो परिबाहिरो। भिक्खुभावं पटिजानन्तो पि अभिक्खु येव गोगणं अनुबन्धगद्रभो विय, सततुब्बिग्गो सब्बवेरिकपुरिसो विय, असंवासारहो मतकळेवरं विय। सुतादिगुणयुत्तो पि सब्रह्मचारीनं अपूजारहो सुसानग्गि विय ब्राह्मणानं। अभब्बो विसेसाधिगमे अन्धो विय रूपदस्सने। निरासो सद्धम्मे चण्डालकुमारको विय रज्जे । 'सुखितोस्मी' ति मञमानो पि दुक्खितो व अग्गिक्खन्धपरियाये वुत्तदुक्खभागिताय।
४९. दुस्सीलानं हि पञ्चकामगुणपरिभोगवन्दनमाननादिसुखस्सादगधितचित्तानं तप्पच्चयं अनुस्सरणमत्तेनापि हदयसन्तापं जनयित्वा उण्हलोहितुग्गारप्पवत्तनसमत्थं अतिकटुकं दुक्खं दस्सेन्तो सब्बाकारेन पच्चक्खकम्मविपाको भगवा आह
"पस्सथ नो तुम्हे, भिक्खवे, अमुं महन्तं अग्गिक्खन्धं आदित्तं सम्पजलितं सजोतिभूतं"ति?"एवं, भन्ते"ति।"तं किं मञथ, भिक्खवे, कतमं नु खो परं यं अमुं महन्तं अग्गिक्खन्धं आदित्तं सम्पजलितं सजोतिभूतं आलिङ्गत्वा उपनिसीदेय्य वा उपनिपजेय्य वा, यं खत्तियकर्ज वा ब्राह्मणककं वा गहपतिकजं वा मुदुतलुनहत्थपादं आलिङ्गत्वा उपनिसीदेय्य वा उपनिपज्जेय्य वा" ति? "एतदेव, भन्ते, वरं यं खत्तियकलं वा....पे०....उपनिपजेय्य वा। दुक्खं हेतं, भन्ते, यं अमुं महन्तं अग्गिक्खन्धं.... पे०.... वस्त्रों की तरह दुर्वर्ण हो जाता है। जो लोग इस दुराचारी का अनुसरण करते हैं वे चिरकाल तक अपाय-दुर्गति-योनियों में दुःख भोगते हुए दुःख के भागी होते हैं। वह जिनका दान ग्रहण करता है उनका वह अपात्र को दान, अल्पफल होने के कारण, लोक में अल्पपूजार्ह ही हो पाता है; अनेक वर्षों से भरते जा रहे मलकूप की तरह उसका शोधन (सफाई) दुष्कर होता है। चिता की जलने से बची लकड़ी के समान वह दोनों ओर (श्रामण्यफल एवं सांसारिक सुख) से निरर्थक हो जाता है; वह भिक्षु होने का दावा करता हुआ भी वस्तुतः अभिक्षु ही है। वह तो ऐसा ही है जैसे गायों के बीच गधा चल रहा हो। वह सबसे वैर रखने के कारण सदैव उद्विग्न रहता है। उसे कोई भी अपने पास बैठा कर उसी तरह प्रसन्न नहीं होता जैसे कोई शव को अपने पास रख कर प्रसन्न नहीं होता। श्रुत आदि गुणों से युक्त होता हुआ भी वह अपने सब्रह्मचारियों में उसी तरह सम्मानास्पद नहीं हो पाता जैसे ब्राह्मणों के लिये श्मशान की अग्नि। वह विशेष (मार्ग-फल) की प्राप्ति में असमर्थ एवं रूपदर्शन की वास्तविकता पहचानने में अन्धे के समान है। सद्धर्म की प्राप्ति में वह उसी तरह असफल या अयोग्य होता है जैसे कोई चाण्डालपुत्र कहीं का राज्य पाने में अयोग्य होता है। वह दुशील 'मैं सुखी हूँ'-ऐसा मानते हुए भी वस्तुतः दुःखी ही रहता है; क्योंकि वह अग्निस्कन्धपर्यायसूत्र (अं० नि०३-२५१) में कथित दुःखों का भागी रहता है।
४९. भगवान् ने पाँच कामगुणों के परिभोग, वन्दन, मान आदि का सुखों के आस्वाद में लुब्ध चित्तवाले इन दुःशीलों के अनुस्मरणमात्र से हृदय में सन्ताप के उत्पादक, उष्ण रक्त का वमन करा देने में समर्थ एवं अतितीव्र पीड़ादायक दुःखों का प्रत्यक्ष कर्मविपाक यों दिखाया है
"भिक्षुओ! देख रहे हो इस जलते लपलपाते चमकते अग्निपुञ्ज को?" "हाँ, भन्ते!" "तो क्या मानते हो, भिक्षुओ! इस जलते लपलपाते चमकते महान् अग्निपुअ को आलिङ्गन में लेकर बैठना या लेटना अच्छा है या किसी अति सुकोमल हाथ पैर वाली क्षत्रिय, ब्राह्मण या गृहपति की कन्या को आलिङ्गनबद्ध कर बैठना या लेटना अच्छा है?" "भन्ते! महान् अग्निपुअ को आलिङ्गनबद्ध करने की अपेक्षा तो यही अच्छा होगा कि हम किसी.. गृहपति कन्या को आलिङ्गनबद्ध कर बैठे या लेटे रहें;