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१. सीलनिद्देस -
७५ पटिकम्मकरणेन, सत्तविधमथुनसंयोगाभावेन च, अपराय च कोधो उपनाहो मक्खो पळाखो इस्सा मच्छरियं माया साठेय्यं थम्भो सारम्भो मानो अतिमानो मदो पमादो-ति आदीनं पापधम्मानं अनुप्पत्तिया, अप्पिच्छता-सन्तुट्ठिता-सल्लेखतादीनं च गुणानं उप्पत्तिया सङ्गहितो।
___ यानि हि सीलानि लाभादीनं पि अत्थाय अभिन्नानि, पमाददोसेन वा भिन्नानि पि पटिकम्मकतानि, मेथुनसंयोगेहि वा कोधूपनाहादीहि वा पापधम्मेहि अनुपहतानि, तानि सब्बसो अखण्डानि अच्छिद्दानि असबलानि अकम्मासानी ति वुच्चन्ति। तानि येव भुजिस्सभावकरणतो च भुजिस्सानि, विग्रूहि पसत्थत्ता वि पसत्थानि, तण्हादिट्ठीहि अपरामट्ठत्ता अपरामट्ठानि, उपचारसमाधि वा अप्पनासमाधि वा संवत्तयन्ती ति समाधिसंवत्तनिकानि च होन्ति । तस्मा नेसं एस अखण्डादिभावो 'वोदानं' ति वेदितब्बो।
४८. तं पनेतं वोदानं द्वीहाकारेहि सम्पजति-सीलविपत्तिया च आदीनवदस्सनेन, सीलसम्पत्तिया च आनिसंसदस्सनेन। तत्थ "पश्चिमे, भिक्खवे, आदीनवा दुस्सीलस्स सीलविपत्तिया" (दी० २-६९) ति एवमादिसुत्तनयेन सीलविपत्तिया आदीनवो दगुब्बो।
___ अपि च दुस्सीलो पुग्गलो दुस्सील्यहेतु अमनापो होति देवमनुस्सानं, अननुसासनीयो सब्रह्मचारीनं, दुक्खितो दुस्सील्यगरहासु, विप्पटिसारी सीलवतं पसंसासु, ताय च पन दुस्सील्यताय साणसाटको विय दुब्बण्णो होति। ये खो पनस्स दिट्ठानुगतिं आपज्जन्ति, तेसं दीघरत्तं अपायदुक्खावहनतो दुक्खसम्फस्सो। येसं देय्यधम्म पटिगण्हाति, तेसं न प्रतिकर्म (सुधार या संशोधन) किये जाने योग्य खण्डित शिक्षापदों का सुधार करने के रूप में; उपर्युक्त सप्तविध मैथुनसंयोग के अभाव से; और अन्य पापधर्मों, जैसे-क्रोध, उपनाह (बद्ध वैर). म्रक्ष (दूसरों को नीच एवं अपने को उच्च दिखाने का भाव), प्रदाश (ईर्ष्यायुक्त द्वेष) ईर्ष्या, मात्सर्य, माया, शाठ्य, स्तम्भ, हिंसा, मान, अतिमान, मद-प्रमाद आदि दोषों की अनुत्पत्ति के रूप में; एवं अल्पेच्छता, सन्तोष एवं कठोर तपस्या आदि गुणों की उत्पत्ति के रूप में संगृहीत है।
जो शील लाभ-आदि के लिये भी खण्डित नहीं किये जाते, या प्रमादवश भङ्ग होने पर जिनका प्रतिकर्म (प्रायश्चित) कर लिया जाता है; अथवा जो शील मैथुनसंयोग या क्रोध-उपनाह आदि अकुशल धर्मो से उपहत (खण्डित) नहीं है, वे सभी अनुपहत, अच्छिद्र तथा अशबल,या अकल्माष कहलाते हैं। वे ही (तष्णा के) दासत्व भाव से मक्त कराने वाले अत: भजिष्य:विद्वानों द्वारा प्रशंसाप्र है अतः विद्वत्प्रशस्त; तृष्णादृष्टि से बद्ध नहीं है अतः अपरामृष्ट; एवं उपचार समाधि या अर्पणा समाधि को प्राप्त कराने वाले हैं अतः समाधिसंवर्तनिक हैं। यों, उन शीलों का यह अखण्डादि भाव ही उसकी 'विशुद्धि है।
४८. पिर वह शीलविशुद्धि दो प्रकार से सम्पन्न होती है- १.शीलविपत्ति अर्थात् शील का खण्डित होना आदि के दोष-दर्शन से एवं २.शीलसम्पत्ति (शीलसंग्रह) के माहात्म्य-दर्शन से। इनमें "भिक्षुओ! दुशील की शील-विपत्ति में पाँच दोष हैं"- (दी० २-६९) इत्यादि सूत्रवचनों के अनुसार शीलविपत्ति में दोष देखना चाहिये।
और फिर, दुःशील पुद्गल १. स्वयं दुःशील हाने के कारण, देवताओं और मनुष्यों के लिये दुर्दर्शन (अमनाप घृणास्पद) होता है; २. अपने सब्रह्मचारियों के लिये वह अनुशासनीय नहीं रह जाता: ३. लोक में अपने उस दुराचार की निन्दा के कारण दुःखी रहता है; (उसके विपरीत) ४. लोक में शीलवानों की प्रशंसा से पछताता रहता है, ५ और वह अपनी उस दुशीलता के कारण सन के