________________
विशुद्धिमग्ग
" पुन च परं ब्राह्मण, इधेकच्चो समणो वा.... पे०.... न हेव खो मातुगामेन । न पि मातुगामस्स ..... न पि मातुगामेन.... न पि मातुगामस्स.... पे०....रोदन्तिया वा । अपि च खो यानिस्स तानि पुब्बे मातुगामेन सद्धिं हसितलपितकीळितानि तानि अनुस्सरति, सो तदस्सादेति .पे..... दुक्खस्मा ति वदामि । (५)
"पुन च परं, ब्राह्मण, इधेकच्चो समणो वा ....पे..... न हेव खो मातुगामेन....पे०....न पि मातुगामस्स....पे..... न पि यानिस्स तानि पुब्बे मातुगामेन सद्धिं हसितलपितकीळितानि, तानि अनुसरति । अपि च खो पस्सति गहपतिं वा गहपतिपुत्तं वा पञ्चहि कामगुणेहि समप्पितं समङ्गीभूतं परिचारयमानं, सो तदस्सादेति.... पे०.... दुक्खस्मा ति वदामि । (६)
"पुन च परं ब्राह्मण, इधेकच्चो समणो वा ....पे..... न हेव खो मातुगामेन.... पे०....न पि पसति गहपतिं वा गहपतिपुत्तं वा... पे०.... परिचारयमानं । अपि च खो अञ्ञतरं देवनिकायं पणिधाय ब्रह्मचरियं चरति — 'इमिनाहं सीलेन वा वतेन वा तपेन वा ब्रह्मचरियेन वा देवो वा भविस्सामि देवञ्ञतरो वा' ति । सो तदस्सादेति, तं निकामेति, तेन च वित्तिं आपज्जति । इदं पि खो, ब्राह्मण, ब्रह्मचरियस्स खण्डं पि छिद्दं पि सबलं पि कम्मासं पी" (अं० ३ - १९४ ) ति । (७)
एवं लाभादिहेतुकेन भेदेन च सत्तविधमेथुनसंयोगेन च खण्डादिभावो सङ्गहितो ति वेदितब्बो ॥
७४
(७) सीलस्स वोदानं
४७. अखण्डादिभावो पन सब्बसो सिक्खापदानं अभेदेन, भिन्नानं च संप्पटिकम्मानं
शब्द सुनता है, वैसे शब्द सुनने में रस लेता है...दुःख से छुटकारा नहीं पाता ऐसी मेरी मान्यता है । (४) " और फिर, ब्राह्मण! यद्यपि यहाँ कोई श्रमण या ब्राह्मण...न स्त्री के साथ न स्त्री से...न स्त्री का.....रोने का शब्द सुनता है; किन्तु स्त्रियों के साथ पूर्वकृत हास परिहास, आलाप और क्रीड़ा को स्मरण करता है, स्मरण कर उसमें रस लेता है...दुःख से नहीं छूट पाता - ऐसा मैं कहता हूँ । (५) " और फिर, ब्राह्मण ! यद्यपि यहाँ कोई श्रमण....न तो स्त्री के साथ...न स्त्री से...न स्त्री का..... न स्त्रियों के साथ ...स्मरण करता है, अपितु वह पञ्च कामगुणों के प्रति समर्पित, तल्लीन व उनका व्यवहार (उपभोग) करने वाले गृहपति या उसके पुत्र को देखता है, उसके व्यवहार में रस लेता है... दुःख से छुटकारा नहीं पाता - ऐसा मैं कहता हूँ। (६)
"और फिर ब्राह्मण! यद्यपि यहाँ कोई श्रमण या ब्राह्मण...न तो स्त्री के साथ ....न व्यवहार करने वाले गृहपति या उसके पुत्र को ही देखता है, फिर भी वह चातुर्महाराजिक आदि किसी देवनिकाय (देवसमूह) की प्राप्ति का सङ्कल्प कर ब्रह्मचर्य धारण करता है कि 'मैं इस शील, व्रत, तप या ब्रह्मचर्य के प्रभाव से देवता हो जाऊँ।' वह उसमें आस्वाद लेता है, उसे चाहता है, उसमें सन्तोष का अनुभव करता है। ब्राह्मण! यह (उसके) ब्रह्मचर्य का खण्डित होना भी है छिद्रित होना भी है, शबलित होना भी है और कल्माषित होना भी । (७)
यो उस शील के लाभ आदि भेद से तथा सप्तविध मैथुन के संयोग-भेद से खण्ड, छिद्र, शबल, कल्माष आदि भेद (संक्लेश) संगृहीत होते हैं - वह जानना चाहिये ।। ७. शीलव्यवदान
४७. उस शील का अखण्डतादिभाव- सर्वत: शिक्षापदों का खण्डन न होने के रूप में;