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________________ १. सीलनिद्देस ७३ "इध, ब्राह्मण, एकच्चो समणो वा ब्राह्मणो वा सम्मा ब्रह्मचारी पटिजानमानो न व खो मातुगामेन सद्धिं द्वयन्द्वयसमापत्तिं समापज्जति, अपि च खो मातुगामस्स उच्छादनं परिमद्दनं न्हापनं सम्बाहनं सादियति, सो तदस्सादेति, तं निकामेति, तेन च वित्तिं आपज्जति । इदं पि खो, ब्राह्मण, ब्रह्मचरियस्स खण्डं पि छिद्दं पि सबलं पि कम्मासं पि । अयं वुच्चति, ब्राह्मण, अपरिसुद्धं ब्रह्मचरियं चरति संयुक्त्तो मेथुनेन संयोगेन, न परिमुच्चति जातिया, जराय, मरणेन.... पे०.... न परिमुच्चति दुक्खस्मा ति वदामि । (१) " पुन च परं ब्राह्मण इधेकच्चो समणो वा .... पे०.... पटिजानमानो न हेव खो मातुगामेन सद्धिं द्वयन्द्वयसमापत्तिं समापज्जति । न पि मातुगामस्स उच्छादनं ....पे...... सादियति । अपि च खो मातुगामेन सद्धिं सञ्जग्घति सङ्कीळति सङ्कलायति, सो तदस्सादेति ....पे..... न परिमुच्चति दुक्खस्मा ति वदामि । (२) "पुन च परं ब्राह्मण इधेकच्चो समणो वा ....पे..... न हेव खो मातुगामेन सद्धिं द्वयन्द्वयसमापत्तिं समापज्जति । न पि मातुगामस्स उच्छादनं ....पे..... सादियति । न पि मातुगामेन सद्धिं सञ्जग्घति संकीळति सङ्केलायति । अपि च खो मातुगामस्स चक्खुना चक्खु उपनिज्झायति पेक्खति, सो तदस्सादेति....पे..... न परिमुच्चति दुक्खस्मा ति वदामि। (३) ' "पुन च परं ब्राह्मण, इधेकच्चो समणो वा ....पे..... न हेव खो मातुगामेन.... न पि मातुगामस्स.... न पि मातुगामेन.... न पि मातुगामस्स.... पे०.... पेक्खति । अपि च । मातुगामस्स सद्दं सुणाति तिरोकुट्टा वा तिरोपाकारा वा हसन्तिया वा भणन्तिया वा गायन या वा रोदन्तिया वा, सो तदस्सादेति... पे० दुक्खस्मा ति वदामि । (४) ४६. इसी तरह अधोलिखित सात प्रकार के मैथुन-संयोग के भेद से भी शील का खण्डितभाव कहा गया है। (अङ्गुत्तरनिकाय में) कहा भी है "ब्राह्मण! यहाँ कोई श्रमण या ब्राह्मण पूर्ण रूप से ब्रह्मचारी होने का दावा करता हुआ किसी स्त्री के साथ सम्भोग (जोड़ा खाना - द्वयन्द्वयसमापत्ति) तो नहीं करता, परन्तु स्त्रियों से उबटन लगवाने, मालिश (परिमर्दन) व स्नान करवाने या शरीर दबवाने (सम्बाहन) का काम कराता है, वह उसमें रस लेता है, उसको चाहता है और उसमें सन्तोष का अनुभव करता है। ब्राह्मण! उसका यह कार्य उसके ब्रह्मचर्य का खण्ड भी है, छिद्र भी है, शबल भी है और कल्माष भी । ब्राह्मण ! इसी को कहा जाता है कि वह अपरिशुद्ध ब्रह्मचर्य का आचरण कर रहा है, मैथुन के संयोग से युक्त है। ऐसा पुरुष जाति, बुढ़ापा, मृत्यु एवं दुःख से कभी छुटकारा नहीं पाता - ऐसा मैं कहता हूँ। (१) "और फिर ब्राह्मण! यद्यपि यहाँ कोई श्रमण-ब्राह्मण...पूर्ववत्...दावा करता हुआ किसी स्त्री के साथ सम्भोग नहीं करता, न किसी स्त्री से उबटन....काम करवाता है, अपितु स्त्री के साथ हासपरिहास करता है, क्रीड़ा करता है, मनोरञ्जन करता है, उसके क्रिया-कलाप में रस लेता है...वह दुःख से छुटकारा नहीं पा सकता ऐसा मेरा मानना है । (२) "और फिर, ब्राह्मण! यद्यपि यहाँ कोई श्रमण-ब्राह्मण..... पूर्ववत्...न रस लेता है, फिर भी वह स्त्रियों की ओर आँख से आँख मिलाकर देखता है, बार-बार देखता है उसमें आस्वाद (रस) लेता है... दुःख से नहीं छूटता - ऐसा मेरा कहना है । (३) 'और फिर ब्राह्मण! यद्यपि यहाँ कोई श्रमण ब्राह्मण....पूर्ववत्....आस्वाद नहीं लेता है; फिर भी दीवाल के पीछे (आड़) से या चहारदीवारी की ओट से स्त्रियों के हँसने, बोलने, गाने या रोने के
SR No.002428
Book TitleVisuddhimaggo Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
PublisherBauddh Bharti
Publication Year1998
Total Pages322
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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